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पावन तीर्थ श्री हस्तिनापुर
निर्मल कुमार जैन
प्रातः स्मरणीय कलिकाल कल्पतरू युगवीर जैनाचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. ने उत्तरी भारत के अपने श्रावकों को पावन तीर्थ श्री हस्तिनापुर जी के ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्वों का बोध कराते हुए इस पवित्र भूमि के जीर्णोद्धार एवं व्यापक विस्तार के लिए सउपदेश दिया था। जिसके फलस्वरूप यह पुण्य भूमि आज इस रूप में निखर कर आई है। हम सब इसके लिए आचार्य भगवन्त के सदैव ऋणी रहेगें।
उत्तरी भारत के शत्रुंजय समान इस पावन तीर्थ पर आज से हजारों वर्ष पूर्व आदि तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव जी ने 400 दिन के निराहार तप का पारणा अपने प्रपौत्र श्री श्रेयांश कुमार के करकमलों से अक्षय तृतीया के शुभदिन पर कर इसे इस अवसर्पिणी काल का अपने जीवन काल में स्वयं प्रथम तीर्थ बनाया तथा सुपात्र दान की परम्परा को प्रारम्भ किया। इसी पवित्र भूमि पर 16वें तीर्थंकर भगवान श्री शांतिनाथ जी, 17 वें तीर्थंकर भगवान श्री कुन्युनाथ जी तथा 18वें तीर्थंकर श्री अरनाथ जी भगवन्तों के च्यवन (गर्म), जन्म, दीक्षा तथा केवल ज्ञान (प्रत्येक के 4-4 ) अर्थात् कुल 12 कल्याणकों के होने का सौभाग्य प्राप्त है। इसी धर्म भूमि पर 19 वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ भगवान का समोसरण रचा गया। अभी तक की जानकारी के अनुसार 20 वें तीर्थंकर भगवान श्री मुनिसुव्रत स्वामी, 23वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी तथा वर्तमान चौबीसी के अन्तिम तीर्थंकर भगवान श्री महावीर स्वामी की विचरण भूमि होने के कारण इसकी रज का कण-कण शिरोधार्य है। 12 चक्रवर्तियों में से 6 चक्रवर्तियों की कर्म भूमि तथा उनमें 3 चक्रवर्ती श्री शान्तिनाथ, श्री कुन्युनाथ तथा श्री अरनाथ के अतिरिक्त श्री सनत कुमार, श्री सुभूम, तथा श्री महापदम नाम के चक्रवर्ती राजाओं के जन्म एवं कार्य क्षेत्र होने का सौभाग्य भी हस्तिनापुर को प्राप्त है। इतिहास प्रसिद्ध कौरवों पांडवों का नाम भी इस पुरातन नगर के साथ ही जुड़ा हुआ है।
इस शास्त्रोक्त आगमोक्त पावन पवित्र भूमि की यात्रा हेतु समय-समय पर आचार्य भगवन्त एवं सुश्रावक पधारते रहे हैं। विक्रम सं. 386 वर्ष पूर्व से लेकर वि. सं. 480 तक आचार्य श्री यक्षदेव सूरि जी म., आचार्य श्री सिद्धसूरि जी म. आचार्य श्री
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रत्नप्रभ सूरि जी म., आचार्य श्री कक्कड सूरि जी म. इस पावन तीर्थ की यात्रा के लिए पधारे, ऐसे प्रमाण मिलते हैं। वि.स.1199 में कुमारपाल राज ने कुरूदेश को जीतकर यहां की यात्रा की थी। वि.सं. 1390 में आचार्य श्री जिनप्रभ जी म., वि.सं. 1627 में खरतरगच्छीय आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरि जी म., वि.सं. 1664 में विजय सागर गणि ( उन्होंने लिखा है कि उस समय वहां 5 जिन मन्दिर तथा 5 स्तूप विधमान थे)। वि.सं. 1778 में आचार्य श्री जिन शिवचन्द्र सूरि जी म., तत्पचात् जगत गुरु आचार्य श्री हीर विजय सूरि जी म., वि.सं. 1750 में मुनि श्री सौभाग्य विजय जी म., वि.सं. 1900 के लगभग मुनि श्री बुद्धिविजय (बूटेराय जी) म., वि.सं. 1939 में श्री विजयानन्द सूरि जी (आत्माराज जी ) म., वि.सं. 1953 व 1965 में आचार्य श्री विजय कमल सूरि जी म., वि.सं. 1964 व 1981 में आचार्य श्रीमद् विजय वल्ल्भ सूरि जी म. तत्पश्चात् विभिन्न आचार्यों ने समय-समय पर इस तीर्थ की यात्रा की तथा देश के विभिन्न प्रान्तों एवं नगरों से इस पावन तीर्थ पर यात्रा हेतू संघ लेकर पधारते रहे है।
पिछले लगभग 80 वर्षों से तीर्थ का प्रबन्ध श्री हस्तिनापुर जैन श्वेताम्बर तीर्थ समिति की देखरेख में चल रहा है। लगभग 110 वर्ष पूर्व कलकत्ता निवासी श्री प्रतापचन्द जी पारसान द्वारा श्री शान्तिनाथ भगवान के जिनालय का निर्माण जीर्णोद्धार के रूप में हुआ था। इस मन्दिर का पुनः जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा की आनन्द जी कल्याण जी पेढ़ी के प्रमुख सेठ श्री कस्तूर भाई लालभाई की संरक्षता तथा राष्ट्रसन्त जैनाचार्य श्रीमद् विजय समुद्र सूरीवर जी म. की निश्रा में सन् 1964 में कराई गयी थी।
इसी श्रृंखला में श्री हस्तिनापुर तीर्थ के इतिहास को मूर्तरूप देने के लिए पारणा एवं कल्याणक मन्दिर का निर्माण हुआ। जिसमें श्री ऋषभदेव भगवान की प्रतिभा अपने प्रपौत्र श्री श्रेयांश कुमार के द्वारा इक्षुरस ग्रहण करती हुई मुद्रा में भारत में प्रथम बार प्रतिष्ठित की गई। इस मंदिर की प्रतिष्ठा जैन दिवाकर, परमार क्षत्रियोद्धारक वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी की निश्रा में सन् 1978 में सम्पन्न हुई।
श्री हस्तिनापुर जी आदि तीर्थकर भगवान श्री ऋषभदेव जी के पारणे का मूल स्थल है। इस पवित्र भूमि पर प्राचीन स्तूप आज भी विद्यमान है। तीर्थ पर पधारे तपस्वी अपने वर्षोतप पारणे के प्रसंग पर इस पवित्र स्थान की पूजा अर्चना सुविधा एवं भावनापूर्ण कर सके, इसी उद्देश्य से इस पवित्र स्थान पर विशाल कलात्मक चौमुख चरण मंदिर का निर्माण किया गया है, जिसमें श्री आदीश्वर भगवान् ने चारचरण मुख्य स्तूप के चारों दिशाओं में प्रतिष्ठित किये जायेगें।
पाठकों को जानकार प्रसन्नता होगी कि तीर्थ के महत्व को दृष्टिगत रखते हुए इस धर्म भूमि पर देश के प्रथम 108 फुट ऊँचे विशाल कलात्मक जैन शिल्प कला के अनुरूप (अष्टापद) की निर्माण योजना विचाराधीन है।
तीर्थ पर तपस्वियों एवं यात्रियों की बढ़ती हुई संख्या को दृष्टिगत रखते हुए पुरानी धर्मशाला के लगभग 174 कमरों का जीर्णोद्धार तथा निर्माण किया गया है।
श्री जे. एस. जवेरी (क्राउन टी.वी.) के सक्रिय योगदान से धर्मशाला का निर्माण कर पाये हैं। श्री किरन कुमार के. गादिया हाल ही में हम आधुनिक सुविधापूर्ण 108 कमरों वाली 3 मंजिली बंगलौर निवासी के सहयोग से एक और 108 कमरों की नई धर्मशाला का शीघ्र ही शुभारम्भ होने जा रहा है।
यात्रियों को शुद्ध भोजन मिल सके, इसके लिए तीर्थ पर एक विशाल भोजनशाला का निर्माण किया गया है। जिसमें यात्रियों को सदैव निःशुल्क भोजन की व्यवस्था आज भी उपलब्ध है।
इस तीर्थ का जो स्वरूप आज निखर कर हम सबके सम्मुख आया है तथा इसकी जो बहुमुखी उन्नति हुई है वह सब आचार्य श्रीमद् विजयवल्लभ सूरि जी म., आचार्य श्री विजय समुद्र सूरि जी म. एवं वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी के आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन तथा चतुर्विध श्री संघों के योगदान से ही सम्भव हो पाई है। जिसके लिए हम उनके
अत्यन्त आभारी हैं।