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प्रभु दर्शन की शुभ-भावना तीर्थकर परमात्मा की स्थापना निक्षेप रूप जिन प्रतिमा के दर्शन-पूजन का एक मात्र ध्येय श्री तीर्थकर के स्वरूप को प्राप्त करना है, अत: घर से प्रयाण पूर्व श्रावक विचार करे कि मेरे देवाधिदेव राग-द्वेष से मुक्त बन कर अजरामर पद को पाये हैं, अतः संसार-भ्रमण के हेत-भूत राग व द्वेष से मुक्त बनने हेतु, साक्षात तीर्थकर के अभाव में, जिन प्रतिमा ही मेरे लिए परम आधारभूत हैं, प्रभु-प्रतिमा मेरे लिए तो साक्षात् प्रभ ही है..! इत्यादि शुभ-भावनाओं से मन को स्वासित कर जिन मन्दिर दर्शनार्थ प्रयाण की तैयारी करे।
जिन-मन्दिर यह परम पवित्र स्थल है, अतः राग को उत्पन्न करने वाले उम्दटवेश का त्याग करना चाहिये और स्वच्छ व शुद्धा वस्त्रों को पहनना चाहिये। जिसके बाद यदि मात्र दर्शन हेतु ही जाना हो तो दर्शन के योग्य सामग्री (वासक्षेप पजा हेतु-वासक्षेप, अग्र पूजा हेतू-धूप दीप-अक्षत नेवेद्य-फल-रुपये आदि) साथ में ले जावें और यदि प्रभु-पूजा के लिए जाना हो तो पूजा के योग्य स्वच्छ और सुन्दर कपड़े पहनकर पूजा की सामग्री (केसर, चंदन, कटोरी, धूप, दीप, नेवेद्य, फल, फूल, चावल, आगी की सामग्री-वरक, बादला, आभूषण इत्यादि) यथा शक्ति साथ में लेकर जावें। केसर, चंदन, धूप-दीप की सामग्री तो मन्दिर में होती ही है फिर घर से ले जाने का क्या प्रयोजन?
श्रावक को मंदिर में रही केसर आदि सामग्री से प्रभ-पूजा करना योग्य नहीं है। प्रभु की द्रव्य-पजा तो धनादि पर की मच्छा को उतारने के लिए ही है, अतः वह मच्छां तभी उतर सकती है, जब श्रावक अपने स्व-द्रव्य से प्रभु पूजा करे। स्वयं की शक्ति होते हुए भी मंदिर में रही सामग्री अथवा अन्य व्यक्ति को सामग्री से प्रभु-पूजा करना, यह तो स्व-शक्ति को छुपाने की ही प्रवृत्ति है, जिसके फलस्वरूप धनादि द्रव्य की मच्छा उतरने के बजाय बढ़ने की ही है।
सार यही है कि यदि मोक्ष की तीव्र उत्कंठा हो और धनादि की मच्छा उतारनी हो तो स्व-सामग्री से ही प्रभ पजा करनी चाहिए। यदि स्वयं शक्ति-हीन हो तो मंदिर के अन्य कार्यादि करके भी व्यक्ति प्रभ-भक्ति का लाभ ले सकता है, अतः श्रावक को यथाशक्ति प्रभ-पूजा में स्व द्रव्य को खर्च कर ही लाभ लेना चाहिये।
जिन मंदिर विधि
-मुनि विनोद विजय
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