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विहार करते रहे। फलस्वरूप प्रेम का पीयूष पीकर अनेक हिंसक "गुरु गुण आत्मराम वल्लभ सब जग को। वल्लभ सूरि के अन्तर का उल्लास ही वह वस्तु हैं, जो उनकी लोग प्रेम के पथिक बने। महाकवि के रूप में गुरुदेव विलक्षण सत् चित् आनन्द रूप, करण कारण सुध मग को।। कविताओं में सर्वत्र दिखायी देती है। उनकी नीति एवं हित प्रतिभा सम्पन्न महाकवि थे। उनका काव्य लोकमंगल के सर्वोत्तम
(श्री विजयानन्द सूरि चरित्रः ढाल पहली) शिक्षा-विषयक कविता-सप्तव्यसक त्याग पदावली, शिखर को छु गया है। उन्होंने श्री महावीर चरित्र श्री पार्श्वनाथ उन्होंने अपने काव्य में प्रभुमय बनने का संदेश दिया। उनके बाहरमासा-1-2, कामदार-स्वरूप आदि में नीति, समाजसुधार, चरित्र, श्री शान्तिनाथ चरित्र, श्री आदिनाथ चरित्र आदि अनुसार-"जीवन एक दिव्य लीला है, अनन्त की महिमा की एक मानवोत्थान तथा जगत् की सुख-समृद्धि पर विशद प्रकाश डाला संक्षिप्त महाकाव्य रचे जो पाश्चात्य और भारतीय काव्य अभिव्यक्ति है। यह एक साधन है जिससे अगणित रूपों और गया है। वे समन्वयवादी कवि हैं। उनका काव्य अनेकान्तवाद का शास्त्रीय के सिद्धान्तों की कसौटी पर खरे उतरते हैं। अनेक जीवनों के द्वारा प्रकृति में विकसित होता हुआ जीव प्रेम, अमृत कलश है। उन्होंने राम-रहीम, जिनेश्वर और कृष्टा की
ज्ञान, श्रद्धा, उपासना और कर्मगत ईश्वरोन्मुख संकल्प के बल एकता बताकर धर्म-सदभाव का सन्देश दिया। उन्होंने कर्म की महाकवि वल्लभसूरि के काव्य-सृजन का प्रयोजन प्रीति है। पर अनन्त के साथ एकत्व स्थापित कर सकता है। आत्मोपलब्धि प
पर अनन्त के साथ एकत्व स्थापित कर सकता है। आत्मोपलब्धि प्रधानता बताकर जाति और वर्ण के आधार पर उच्च और निम्न वे अपने प्रेम-रंग में सबको रंगना चाहते हैं, इसलिए उनका और ईश्वरोपलब्धि विचारशील मनष्य का महान कार्य है। मानव-समुदाय के भेदभाव को विध्वंस किया। इस प्रकार उन्होंने काव्य, लोक-मंगल से अभिमंडित है। इसी लिए उन्होंने "सम्यग्
समस्त जीवन और विचार अन्ततोगत्वा आत्मापलब्धि और समस्त मानव समाज को एकता के स्वर्ण सूत्र में गूंथा। दर्शन पूजा" काव्य में यह स्पष्ट किया है:
ईश्वरोपलब्धि की ओर प्रगति करने के साधन हैं। आत्म उन्होंने पर्यावरण-प्रदूषण को मिटाने के लिए जैविक और बंदी वीर जिनंद को, गौतम धर के ध्यान। साक्षात्कार ही एकमात्र आवश्यक वस्तु है : अन्तरस्थ परमात्मा वानस्पतिक संरक्षण पर बल दिया। उन्होंने बताया कि जीवित आतम आनन्दकारणे, रचुं पूजा भगवान।।
की ओर खलना, अनन्त में निवास करा, सनातन को खोजना और रहने के लिए विश्व शान्ति के लिए पाणी-मैत्री अत्यन्त "शिवमस्तसर्वजगतः" की उदात्त भावना से अभिप्रेरित उपलब्ध करना, भगवान के साथ एकत्व प्राप्त करनान्यहाधम आवश्यक है। "जो प्राणि-मित्र नहीं, वह मानव नहीं।" यह होकर उन्होंने जैन वाडमय के पौराणिक आख्यानों को लेकर का सर्वसामान्य विचार और लक्ष्य है, यही आध्यात्मिक मोक्ष का काम काव्य-रचना की है। कवि के काव्य विषय हैं-भक्ति और नीति। अभिप्राय है। यही वह जीवन्त सत्य है जो पूर्णता और मक्ति प्रदान
महाकवि वल्लभ सूरिजी "जिनवरवाणी भारती" अर्थात् भक्ति के आलम्बन हैं-करुणासागर वीतराग परमात्मा जो __करता है।" उनके काव्य में भारत माता की महिमामयी संस्कृति
हिन्दी के महान् कवि हैं। उन्होंने हिन्दी में उर्दू, फारसी, समस्त जगत् के रक्षक और पालक हैं: "जग उपकारी नाथ, नहीं का उज्जवल दिग्दर्शन हुआ है।
संस्कृत-प्राकृत, गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी, अंग्रेजी. ब्रज, कोई जग में तुम तोले"।
उनके नीति-काव्य में मानव को मानवीय गुणों से अलंकृत अवधी आदि शब्दों का सरस प्रयोग किया है जिससे राष्ट्र भाषा (श्री आदिनाथ चरित्र, पृ. 258)
करने का सचोट उपदेश है। उन्होंने "राजमती रहनेमि समद्ध हई है। संक्षेप में, भारतेन्दजी ने "निज भाषा उन्नति अहे समस्त जगत् को सुख प्रदान करने वाले दीन के रक्षक दीनानाथ जम्बूस्वामी" आदि गीत-नाट्यों के माध्यम से नारी के उज्ज्वल सब उन्नति को मूल" का और वल्लभ सूरिजी ने हिन्दी को लोकनायक हैं जिनके अरिहंत, जिनेश्वर, वीतराग, ब्रहमा, हरि, रूप को प्रतिष्ठित किया है। उनके अनुसार नारी मंगल-विधात्री, "जिनवरवाणी भारती" कहा तो उन्होंने पराई भाषा अर्थात हर, सीताराम, रहीम, अल्लाह, ईश्वर आदि अनन्त नाम हैं। समाज की कल्प-बेली और करुणा और वात्सल्य की साकार विदेशी भाषा से होने वाले खतरों से सावधान किया है। भगवान विश्वानन्द के प्रणेता, विश्व-ऐक्य के मंगल-विधाता प्रतिमा है, अतः उसकी शिक्षा दीक्षा का पूर्ण प्रबन्ध करना
उनकी कविता-सुन्दरी का सहज संगीत कर्ण पुटों में अमृत जगवत्सल और जगदीश हैं। उनके लोकमंगलकारीउ अत्यावस्यक है। उसके प्रति सम्मान और सात्विक भाव रखना
घोलता है। उसका नृत्य हृदय को पुलकित करता है और जगहितकारी स्वरूप को प्रगट करने के लिए महाकवि ने अपने समाज के विकास का मंगल सूत्र है। वह भोग्य नहीं सुयोग्य है,
अनिर्वचनीय आनन्द की सृष्टि करता है: काव्य का सृजन किया। पावनता की प्रतिमा है।
अण प्रण रण के नेडरा, धुंधरिया छनकंत। भक्त कवियों की तरह उन्होंने अपने उद्धारक गुरु की महाकवि का काव्य नैसर्गिक है। उनके लिए यह उचित ।
ठुमक ठुमक कर नाचती, सुवनिता सहकंत। प्रशस्ति में "श्री विजयानन्द चरित्र" की रचना की। इसमें खरी उतरती है-"कविता हृदय का उद्गार है। बाद तो बदलते
विविध तुरधुनि गावती, अनुभव अमृतधार। कवीश्वर ने गुरुदेव की प्रशस्ति में लिखा है: "इस महर्षि ने रहते हैं, पर कविता में एक हृदयवाद होता है, जो बदलता नहीं
जिन गुण गावत तार से, नटन करे नरनार।। अपनी संयम-विभूषा जीवन को दीपशिखा के समान उज्जवल है।" बना दिया, उन्होंने अपने सम्यग्र ज्ञानालोक से न केवल अपने
(मुकटधर पाण्डेय, कवि से कविता तक पृ. 11)
(श्री वल्लभसूरि रचित इक्कसी, प्रकारी पूजा) अन्तराल को ज्योतित किया, वरन् विश्व को भी प्रकाशित किया। उनके काव्य में दर्शन, नीति, उपदेश आदि विषयों का समावेश
निसंदेह इस कविता सुन्दरी के भक्ति भावपूर्ण नर्तन और उन्होंने गोविन्द के अनिन्द्य अकलुषित एवं विश्ववत्सल स्वरूप हुआ है, परन्तु उन सबमें कविता का रंग चढ़ा हुआ है। जीवन के संगीत से कौन अमरानन्द में लीन नहीं होगा? को प्रकट करके गुरुपद को गौरवान्वित किया।" विविध विषय कविता रस में भीगकर रसमय बन गये हैं। श्री
जय जय आत्म वल्लभ brary.org