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ओ मेरे गुरु तेरी जय हो
-मुनि धर्मधुरन्धर विजय
विजेसमुद्रस्त
इस वर्ष मेरा चातुर्मास पालीताणा था। जिस उद्देश्य को निर्धारित करके मैंने दादा की भूमि पर चातुर्मास का निश्चय किया था वह था आगम संशोधन का कार्य सीखना। प्रख्यात आगम संशोधक विद्वद्वरेण्य मुनिपुंगव श्री जम्ब विजय जी महाराज साहब के पास प्रतिदिन जाकर आगम अध्ययन और संशोधन का कार्य सीखता रहा। यह आगम संशोधन का कार्य यों तो बड़ा ही कठिन, नीरस और समय साध्य है। किंतु यदि कोई तत्परता और जिज्ञासा के साथ लगे तो उसे बड़ा रस मिलता है। चातुर्मास के बीच पूज्य आचार्य श्री जी का पत्र आया और वल्लभ स्मारक के सर्वाधिक सक्रिय कार्यकर्ता राजकुमार जी वहाँ आए और दिल्ली आने की विनती की। मैंने उनसे एक ही बात कही-इस स्मारक के पीछे मेरे पूज्य गुरुदेव समुद्र सूरीश्वर जी म. सा. की प्रेरणा और आदेश है अत: अवश्य ही आऊँगा। और अपने शरीर तथा स्वभाव के विपरीत तेज गति से विहार करता हुआ मैं आज पाली पहुंचा हूँ।
आज प्रातः काल ही समुद्र विहार पहँचा वहाँ अपने वयोवृद्ध शिक्षक पं. रामकिशोर जी पाण्डेय से मिला तत्पश्चात् "समुद्र हॉल" में जाकर पूज्य गुरुदेव आचार्य समुद्र सूरि जी म. की प्रतिमा के दर्शन करते ही सारा अतीत जीवन्त हो उठा
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