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आचार्य इन्द्रदिन्न सूरि : सर्वगुणसम्पन्न जैनाचार्य
- अ०ना० धर द्विवेदी
भारतीय इतिहास सन्त-महात्माओं की गाथाओं का साक्षी है। वे समय-समय पर अवतरित होकर युग की आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। जन-साधारण को सन्मार्ग दिखाना, प्राणियों के दुख से विगलित होकर उनका लौकिक-परलौकिक कष्ट निवारण
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उनके जीवन का प्रमुख उद्देश्य होता है। इसीलिये विश्वकवि के बाद माँ पुनः महात्माजी की सेवा में उपस्थित हुई और दवा तुलसीदास ने मानस में अंकित किया:
बताने के लिए उसने प्रार्थना की। महात्माजी ने उस बच्चे से कहा "बच्चा, गुड़ खाना छोड़ दो।" माँ ने कहा, "यह तो उस दिन भी आप बता सकते थे, एक महीने का समय क्यों बरबाद किया। " महात्माजी ने माँ से कहा "उस दिन मैंने स्वयं गुड़ खाया था, इसलिए गुड़ छोड़ने की बात कैसे कर सकता था?" यह है भारतीय चारित्र का आदर्श, जो आचार्य श्री इन्द्रदिन्न सूरि में दृष्टिगत होता है। इसीलिये जालना श्री संघ ने आपश्री को चारित्र चूड़ामणि पदवी से विभूषित किया।
सन्तहृदय नवनीत समाना, कहा कविन पै कहा न जाना। निज परिताप द्रवै नवनीता, परदुख वै सुसन्त पुनीता । ।
अर्थात् कवियों ने सन्तों का हृदय नवनीत (मक्खन) के समान कहा है पर उन्हें ठीक-ठीक कहना नहीं आया। क्योंकि नवनीत को जब स्वयं गर्मी लगती है तब वह पिघलता है। परन्तु सन्तों का हृदय दूसरे के ताप दुख से द्रवीभूत हो जाता है, करुणार्द्र हो उठता है।
आचार्य श्री इन्द्रदिन्न सूरि को मैंने ऐसे ही सन्तों के रूप में देखा है। किसी की पीड़ा देखकर वे अपनी पीड़ा भूल जाते हैं। पर दुख-कातरता से उनका हृदय तत्काल दयार्द्र हो उठता है, उदाहरण के लिए अपना ताजा अनुभव सुना रहा हूँ:
हस्तिनापुर में चातुर्मास के समय मस्तिष्क ज्वर से मैं पीड़ित था, ज्वर के समय मस्तिष्क काम नहीं कर रहा था। उस समय मुरादाबाद के श्रावक श्री डिप्टीचंद आचार्य श्री की सेवा में उपस्थित हुए। वे प्राय: चमेली के तेल की मालिश कर गुरुदेव की थकावट दूर करते रहते हैं। किन्तु उस दिन आदेश के स्वर में आचार्य श्री ने उनसे कहा "हमारे पंडित जी बीमार हैं, उनकी सेवा करो, मेरी रहने दो।" तदनुसार श्री डिप्टीचंद मेरी सेवा करने लगे। पहले तो मुझे बड़ा संकोच हुआ। किन्तु आपद्धर्म समझकर मैंने उनकी सेवा स्वीकार कर ली। ज्वर कम हुआ। राहत मिली। यह घटना जितनी छोटी है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण है।
आचार्य श्री स्वयं भी मेरे पास आए। आपश्री ने मेरे सिर पर कोई दवा लगाई। पानी की पट्टी बंधवाई। इतने अधिक व्यस्त रहते हुए भी मेरी बीमारी की हालत में ही नहीं अन्य अवसरों पर भी मेरा विशेष ध्यान रखते हैं। आचार-व्यवहार, खान-पान, रहन-सहन शुद्ध रखने के लिये प्रेरणा देते रहते हैं, जबकि मेरे सुहृद् और आत्मीय जन इसके लिए मेरी आलोचना करते हैं।
चारित्र भारतीय संस्कृति का मूलाधार है। विद्वान् होने पर भी यदि चारित्र और आचरण ठीक नहीं है तो वह पांडित्य व्यर्थ है। कहते हैं एक माँ अपने बच्चे को किसी महात्मा के पास ले गई। "निवेदन किया इसके पेट में कीड़े हैं, कोई दवा बताइए।" एक महीने के बाद आओ।" महात्माजी ने उस माँ से कहा। एक महीने
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भारतीय ग्रन्थों में तप की महत्ता विस्तारपूर्वक बताई गई है। बहुत दूर न जाकर गोस्वामी तुलसीदास से पूछिये। उनका उत्तर इस प्रकार हैं:
तपबल रचइ, प्रपंच विधाता, तपबल बिस्नु सकल जगत्राता,
तपबल संभु करहि संहारा, तपबल सेष धरहिं महिभारा। तप अधार सब सृष्टि भवानी, करहि जाहि तपु अस जिय
जानी।
तप की महिमा सभी धर्मों और शास्त्रों में कही गई है। आचार्य श्री इन्द्रदिन्न सूरि का अधिकांश समय तप में व्यतीत होता है। अगर वे गच्छाधिपति नहीं होते, चतुर्विध संघ का उत्तरदायित्व उनके सबल कन्धों पर न होता, योगोद्वहन की क्रियाएँ नहीं करानी पड़तीं, जैन शासन की अभ्युन्नति का स्वप्न उनकी आँखों में नहीं मँडराता, जैन-मन्दिरों और उपाश्रयों की स्थापना, अंजनशलाका प्रतिष्ठा को महत्त्व नहीं देते, प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार करा तीर्थ की पूर्व गरिमा स्थापित करने की भावना की उपेक्षा करते, मध्यम वर्गीय साधर्मिकों की सुख-सुविधा के लिए चिंतित न होते तो निःसंदेह उनकी प्रत्येक सांस के साथ तप जुड़ा रहता और ये सभी काम भगवान के हैं, जो तप की श्रेणी में आते हैं। अतः यह कहना कि आचार्य श्री अहर्निश जप-तप में संलग्न रहते हैं तो उसे अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता।
आचार्यश्री स्वयं तो जप-तप करते ही हैं दूसरों को भी इसके लिए प्रेरणा देते रहते हैं। लोगों को जप-तप करते देखकर उन्हें परम प्रसन्नता होती है। एक दिन आचार्य श्री की वर्धमान तप की अड़तालीसवीं ओली की पारणा के निमित्त अनुमोदना सभा का
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