Book Title: Atmavallabh
Author(s): Jagatchandravijay, Nityanandvijay
Publisher: Atmavallabh Sanskruti Mandir

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Page 83
________________ अनेक लोग निर्मल जीवन से अलंकृत हो गये। गुरुदेव की "आचार्य श्री बहुत कोमल, संवेदनशील एवं सहृदय व्यक्ति थे। वल्लभ संस्कृति मन्दिर नामक संस्था स्थापित की गई है। संस्कृति वीतराग वाणी का अमृत पान कर जनता के मानस-मंदिर में उनके अन्तर का कण-कण उज्जवल मानवीय गुणों से ज्योतिर्मय मंदिर का विशाल परिसर दिल्ली से 20 किलोमीटर दर मानवता के मंगल दीप प्रज्वलित हो गये। था। वे करुणा के जीवंत प्रतीक थे।" दिल्ली- अमृतसर राष्ट्रीय पथ पर स्थित है। यह संस्था न केवल गुरुदेव के जीवन में सेवा की सवास भरी हई थी। वे कहा हा समाज सेवा-पूज्य गुरुदेव ने सामाजोत्थान के लिए"उत्कर्ष सांस्कृतिक उत्थान के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी, वरन करते "सेवा के पथिक का पाथेय है-विनय भाव"। उन्होंने एक फंड" की योजना चालू की। मध्यम एवं निर्धन वर्ग के उत्थान के स्वच्छ नागरिक निर्माण हेतु अत्यन्त उपयोगी उद्योगशाला सिद्ध विज्ञप्ति प्रसारित की थी : "सर्व सज्जनों से विज्ञप्ति है। मुझे कोई लिए उद्योगशालाएं स्थापित करवाई। दर्भिक्ष, अति वृष्टि एवं होगी। जैन दर्शन के अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के आचार्य, कोई जैनाचार्य, कोई धर्माचार्य, कोई शास्त्र विशारद, . प्राकृतिक तथा मानवकृत विपक्ष से पीड़ित प्राणियों की सेवा के सिद्धान्तों के प्रचार और प्रसार की यह सशक्त माध्यम होगी। गुरु कोई विधावारिधि, कोई भू-भास्कर इत्यादि मानवांछित पदवियाँ लिए ये महर्षि सदा तत्पर रहते। श्रीमन्त इनके उपदेशों से वल्लभ की सन्देश वाहिका के रूप में इस संस्था की कीर्ति-पताका लिखकर भारी बनाते हैं। यह बिल्कुल अन्याय है। अतः उत्प्रेरित होकर धन की थैलियों खोल देते। यों कि बहिनें भी अपने सर्वत्र फैलेगी। राष्ट्र की अखंडता और एकता, धर्म-सद्भाव और स्वर्गवासी जैनाचार्य, श्रीमद् विजयानन्द सूरि जी महाराज द्वारा स्वर्ण-हीरक आभूषण दान में दे देती थी।। जगत मैत्री के सिद्धान्तों से नागरिकों को विभषित करने के लिए प्रदत्त "मुनि' उपाधि के सिवाय अन्य उपाधि मेरे नाम के साथ इनकी सेवा, उदारता, करुणा और वात्सल्य भाव के अनेक इस संस्था की महत्वपूर्ण उपयोगिता होगी। कोई भी महाशय न लिखा करे।" प्रसंग उनके जीवन चरित्र और उन पर रचित शोध प्रबन्ध श्री वल्लभ सूरि जी ने जिस महान् स्वप्न को संजोया था, "कलिकाल कल्पतरु" में वर्णित है। उन्होंने बिनोली (मेरठ) में उसको मूर्तिवंत करने के लिए पट्टालंकार राष्ट्रसंत जिनशासन (आदर्श जीवन, पृ. 236) प्यासे हरिजनों के लिए पानी की व्यवस्था करवायी। इस पर रत्न आचार्य श्रीमद् समुद्र सूरि जी म.सा. तथा उनके स्वर्गवास के इतना होने पर भी जनता ने अत्यन्त भक्ति भाव से उनको रिजन समाज पश्चात् जिनशासनरत्न जी के पट्टविभूषण आचार्य श्रीमद् भारत दिवाकर, कलिदास कल्पतरू, अज्ञान तिमिर तरणि, पंजाब अवतार"-कहा। आभा (पंजाब) के जीर्ण-शीर्ण गुरुद्वारे का विजयेन्द्र दिन्न सूरीश्वरजी म. सा. एवं महत्तरा साध्वी जी श्री केसरी आदि अलंकरणों से विभूषित किया। आध्यात्मिक जीवन जीर्णोद्वार करवा कर सिख भाई-बहिनों का दिन जीता, पपनाखा मृगावती जी महाराज का योगदान अविस्मरणीय रहेगा। उनका - आचार्य श्री तपस्वी महर्षि थे। वे ज्ञान-ध्यान में रमण करते (गजरांवाला) ग्राम में मसलमान भाइयों को मस्जिद के लिए जैन ध्वल यश शुभ ज्योत्सना के समान जन-मानस को उज्जवलित हुए जन-कल्याण में सन्नद्ध रहे। भाईयों से जमीन दिलवाई। इस पर मस्लिम समाज ने उनको करता रहेगा। आचार्य श्री इन्द्रदिन्न जी इस संस्था के विकास हेतु उनको गोचरी में जो कुछ सूखा-सूखा मिलता, उसमें संतोष "अल्लाह का नूर" कहा। उन्होंने अज्ञान-तिमिर को दूर करने के भागीरथ प्रयत्न कर रहे हैं। यह शुभ है। रखते। पैदल-विहार में उन्हें कहीं चने, कहीं छाछ, कहीं रोटी के लिए राष्ट्र के कोने-कोने में सरस्वती मंदिरों की स्थापना करवाई। देश प्रेम-श्री गुरुवल्लभ का देश प्रेम स्वर्णक्षरों में लिखा टुकड़े मिलते-उनको पानी में भिगो कर खाते। वे दिन भर में इन विद्यामन्दिरों में उल्लेखनीय हैं:-श्री महावीर जैन विद्यालय गया है। उन्होंने जीवन भर खादी पहनी। यहाँ तक कि आचार्यपद गिनती की चीजें ही भोजन में लेते। वे प्रातः काल बह्म मुहूर्त में बम्बई, श्री पार्श्वनाथउममेद जैन कालेज फालना, श्री पार्श्वनाथ जैसे महान् प्रसंग पर उन्होंने पंडित हीरालाल शर्मा के हाथों से चार बजे उठते और प्रभु-भक्ति में लीन हो जाते। वे पर्व-तिथियों जैन विद्यालय वरकाना, श्री आत्मानंद जैन कालेज अम्बाला, एवं कती हुई और कातते-कातते अति पावन नवस्मरण के मंगलपाठ में बेला, तेला, उपवासादि व्रत का पालने करते। अपने संकल्प की लुधियाना आदि। गुरुदेव ने अनेक कन्याशालाएँ खुलवाई। से मंत्र सिक्त सूत्र से बनी खादी की चादर ओढ़ी थी। उन्होंने पूर्ति के हेतु वे मिष्ठान्न, दूध आदि का भी परित्याग करते। गुरुदेव ने धार्मिक शिक्षण को नैतिक जीवन के लिए "माता के दूध स्वदेशी आन्दोलन का प्रबल समर्थन किया क्योंकि यही "अग्निशिखा के समान प्रदीप्त एवं प्रकाशवान रहने वाले के समान' पुष्टिकारक बताया। उन्होंने व्यावहारिक शिक्षा को अहिंसात्मक क्रान्ति का एक मात्र मार्ग था। उनकी दृष्टि से अन्तर्लीन साधन के तप, प्रज्ञा और यश निरन्तर बढ़ते रहते हैं।" जीवनोपयोगी कहकर उसके प्रचार-प्रसार के लिए उपदेश मशीनीकरण से लोग बेकार होगें। पश्चिम के अंधानकरण से (आचारांग सूत्रः 2/4/16/140) गुरुवल्लभ के धवन यश का दिया। समाजोत्थान एवं सांस्कृतिक विकास के लिए गुरुदेव "जैन आत्मप्रधान भारती संस्कृति का विनाश होगा। उन्होंने यही रहस्य था। विश्व विद्यालय" की स्थापना करना चाहते थे। उनके अन्तिम सप्तव्यसत मुक्त समाज की रचना के लिए ग्राम-ग्राम, वे हितकर और संशयहीन वचन बोलते। उनकी वाणी में उपदेश में भी यही मंगल संदेश था। हमें प्रसन्नता है कि गुरुदेव नगर-नगर पैदल विहार कर प्रवचन किये। उनका उद्देश्य था आक्रोश नहीं होता। भाषा संयत और सन्तुलित होती। उनके का स्वपनसाकार करने हेतु श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण कि स्वतन्त्र भारत का नागरिक मानवीय गुणों से विभूषित होकर जीवन में परम विराग, परम तत्व की परख और प्रभु-भक्ति में निधि दिल्ली में एक सुन्दर प्रायोजन प्रारम्भ की है। इसके राष्ट्र, समाज और जगत का मुक्ताहार हो। पतित, अष्ट नागरिक समर्पण भाव था। उनके नेत्रों से अमृत झरता था। ऐसा प्रतीत अन्तर्गत श्री आत्म वल्लभ संस्कृति मन्दिर नामक संस्था स्थापित से राष्ट्र का विनाश होता है। गुरुवल्लभ देश के विभाजन के होता था मानों उन्हें करुणासागर परमात्मा का साक्षात्कार हो करने हेतु श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि दिल्ली में समय रक्त-पिपासु लोगों को अहिंसा और प्रेम का सन्देश फैलाने Annouc गया हो। राष्ट्रसंत कवि श्री उपाध्याय अमर मुनि जी के शब्दों में: एक सुन्दर प्रायोजना प्रारम्भ की है। इसके अन्तर्गत श्री आत्म के लिए अशान्त और रक्तरंजित पंजाब की धरती पर पैदल ।

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