________________
और महत्वपूर्ण था, लेकिन जब से वह नीची व घृणास्पद समझी वाली वस्तुएँ संभव हो रही हैं, राजनैतिक, आर्थिक आदि क्षेत्रों में लेकर अपनी कन्या देना। इसके पीछे आशय तो यही था कि कोई जाने लगी, तब से समाज में विषमता फैलीस समाज का पतन क्रांति हो रही है, वैसे सामाजिक क्षेत्र भी क्रान्ति के असर से अछता कन्या वाला निर्धन हो तो उस पैसे से लड़की की शादी का खर्च हुआ।
नहीं रह सका। लेकिन यह कहना होगा कि सामाजिक क्षेत्र में चला सके। लेकिन उस पैसे को कोई अपने घर में रखता न था।
संतोषजनक सुधार नहीं हो पाये हैं। कई सामाजिक प्रथाओं में जो शादी के खर्च के लिए लाचारीवश लेते हुए भी शर्म महसूस होती (6) देश, काल, परिस्थिति देखकर कर हितकर सुधार का सुधार नये जमाने के अनुसार हुए हैं, वे धर्म को नजरअन्दाज थी। उलटे कन्यादान किया जाता था। लड़की के घर का पानी तक शुभ संकल्प करना-जमाना बदल रहा है। अगर समाज भी करके हुए हैं। कोई जगह पुराने रीति-रिवाजों के अहितकर होने नहीं पिया जाता था। मगर बाद में कई पैसे के लोभी लोग कन्या जमाने के अनुसार नहीं बदलता है तो जमाने की तेज रफ्तार उसे पर भी उनके साथ धर्म को ऐसा चिपका दिया गया है कि लोग उसे का हिताहित न देखकर कन्या के रुपये गिना कर उसे बूढ़े, बीमार बदल देगी। लेकिन अपनी इच्छा से देश, काल और परिस्थिति छोड़ने में हिचकिचाते हैं। वास्तव में, उन रीति-रिवाजों का धर्म अपाहिज या दुजबर के गले मढ़ने लगे। कन्या बेचने का व्यापार देख कर समाज का हित सोच कर युगानुसार समाज की प्रथाओं में से कोई खास सम्बन्ध नहीं है। बल्कि ऐसे अहितकर और समाज चल पड़ा। कुछ समाज-हितैषियों का ध्यान इस पाप की ओर परिवर्तन करना और काल के थपेड़ों के कारण बलात् विवश हो के पिछड़े वर्ग के लिए त्रासदायक रीति-रिवाजों से चिपटे रहने से गया, उन्होंने इस कुप्रथा को बन्द करने का विधान बनाया। अब कर परिवर्तन करने में बड़ा अन्तर है। जैसे एक आदमी घोड़े पर अधर्म हो होता है। जैसे छुआछूत की मान्यता। हरिजन को छु तो कन्याविक्रय लगभग समाप्त-सा है। कहीं कोई प्रसंग बनता है, सवार होकर चलता है, दूसरा घोड़े की पूँछ के साथ बँध कर जाने से धर्म चला जाता है, यह कुप्रथा कितनी भयंकर, युगबहा वह भी समाज की आँखें चुरा कर। घिसटता हुआ चलता है। मुकाम पर दोनों पहुँचते हैं। मगर दोनों और असमानता के पाप को बढाती है? अपने मत सम्बन्धी के
और असमानता के पाप को बढ़ाती है? अपने मृत सम्बन्धी के बरविक्रय-आज तो वरविक्रय का रोग कन्याविक्रय के बदले के चलने और पहंचने में जैसा अन्तर होता है, वैसा ही अन्तर इन पीछे कई महीनों तक रोने और छाती कूटने की कुप्रथा भी समाज लगा हुआ है। यह रोग इतना चेपी है कि समाज इस भयंकर दोनों परिवर्तनों में है। एक बीमार बन कर सोता है, दूसरा थक का पिछड़ापन सूचित करती है। ऐसी कुप्रथा को चुन-चुन कर टी.बी. के रोग के कारण मतप्राय बन रहा है। जहाँ देखों वहाँ कर सोता है, थक कर सोने वाला गाढी नींद लेकर ताजगी बन्द कर देना चाहिए।
लड़के नीलाम हो रहे हैं। लड़की वालों से बड़ी-बड़ी रकम प्राप्त करता है, बीमार बन कर सोने वाला विवशता से सोता है। कई नई हानिकर प्रथाएँ पाश्चात्य सभ्यता के प्रवाह में बह तिलक-बींटी के रूप में माँगी जाती हैं सोना या सोने के जेवर माँगे परिवर्तन तो हमारे अन्दर आज भी हो रहा है, परन्तु वह होता है कर कहीं-कहीं समाज में प्रचलित की गई हैं। जैसे लड़के-लड़की जाते हैं, घड़ी,रेडियो, सोफासेट, स्कूटर या अन्य फर्नीचर की माँग
की शादी होने से पहले उनका एकान्त में मिलना, दोनों का साथ तो मामूली बात है। विदेश जाने और पढ़ाई का खर्च तक मांगा
घूमना, साथ में सिनेमा देखने जाना, प्रेम-पत्र लिखना, आदि। ये जाता है। इस प्रकार पराये और बिना मेहनत के धन पर गुलछरें अत्यन्त खर्चीली, अहितकर या अनर्थक हो गई हैं, उन्हें देश, कप्रथाएँ भारतीय संस्कृत और नीति के विरुद्ध होने से त्याज्य उड़ाये जाते हैं। युवकों के लिए तो यह बेहद शर्म की बात है। काल,परिस्थिति आदि को देखते हुए शीघ्र बदलने या सुधारने का होनी चाहिए। अतः जो रीति-रिवाज समाज के लिए हानिकारक, परन्तु उन जवान लड़कों के माता-पिताओं के लिए भी इस कुप्रथा शुभ संकल्प करना चाहिए। जो समाज अपनी अहितकर प्रथाओं अहितकर, खर्चीले, विकासघातक, भारतीय संस्कृति और नीति का पालन कम पापजनक नहीं है। बेचारे कन्या के मध्यमवर्गीय को बदलकर हितकर प्रथाओं को प्रचलित करता है, वही समाज ।
के विरुद्ध व युगबाहा बने हुए हैं, वर्तमान युग के लिए अनावश्यक गरीब पिता की स्थिति बड़ी नाजुक हो जाती है, जब एक ओर घर जिंदा कहलाता है, वही उन्नति और प्रगति कर सकता है। समाज हैं या जिनमें विकृति आ गई है; जो बिना मतलब के निरर्थक से हैं, में 20-25 साल की लड़की कुंवारी बैठी रहती है, दूसरी ओर के मूल सिद्धांतों में कोई परिवर्तन नहीं होता, लेकिन द्रव्य, क्षेत्र, उनमें अवश्य परिवर्तन करना चाहिए। तभी समाजोत्थान सच्चे वरपक्ष को मुँहसाँगे दाम देने की हैसियत नहीं होती। घर में रोटी काल और परिस्थिति के अनुसार उसके बाह्य ढाँचे में परिवर्तन अर्थों में हो सकेगा।
के लाले पड़ रहे हों, व्यापार मंदा चलता हो, महँगाई बढ़ गई हो, करते रहना चाहिए। तभी समाजोत्थान का काम सतत स्थायी
ऐसे मौके पर बड़ी उम्र की कन्या के पिता की स्थिति कितनी रहता है। पोशाक ऋतु के अनुसार बदलते रहने पर भी आदमी में
समाज विकास में लगे हुए घुन
दयनीय हो जाती है? वह कहाँ से इतनी रकम या साधन वरपक्ष के कोई परिवर्तन नहीं होता। इसी प्रकार समाज की प्रथाओं में
लोगों को लाकर दे? फलतः इस चिन्ता के मारे कई माता-पिता तो द्रव्यक्षेत्रकालभावानुसार परिवर्तन होने पर भी समाज तो वही वर्तमान समाज की परिस्थिति को देखते हुए कुछ सामाजिक आत्महत्या कर लेते हैं। यह भयंकर पाप यहीं तक समाप्त नहीं रहता है। बल्कि समाज का जीवन उन्नत बनता है। इसलिए कुप्रथाओं की ओर मैं आपका ध्यान खींचना चाहता है, जो समाज होता। अगर लड़की के पिता ने आशा से कम दिया तो उसकी समाजोत्थान के लिए यह तत्त्व तो अनिवार्य है। ऐसे शुभ संकल्पों के विकास में लगे हुए धुन हैं। समाज की उन्नति में ये कसर लड़की पर निकाली जाती है। ऐसी लड़की जब बह बन कर के बल पर ही समाज सुदृढ़ बनता है।
कुरीति-रिवाज रोड़े बने हुए हैं। इसलिए शीघ्र ही इनमें परिवर्तन ससुराल में आती है तो उसे सास-सुसर और ननदों के ताने मिलते वर्तमान युग क्रान्ति का युग है। इस युग में मानव-जीवन के करने की आवश्यकता है। कुछ कुप्रथाएँ ये हैं
हैं, गालियाँ मिलती हैं, पति द्वारा हैरान किया जाता है, विविध सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। असंभव प्रतीत होने (6)कन्याविक्रय-कन्याविक्रय का अर्थ है, वरपक्ष से धन यातनाएँ दी जाती है और कई जगह तो जान से मार भी डाला | Jain Educanam