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आये। तब उनश्री की अन्तिम सेवा करने की तीव्रोत्कंठा जागी सब ही सेवा धर्म का ही समर्थन करते हुए नजर आते हैं। एक समय था कि नगर की शोभा जैन समाज पर निर्भर थी और और where there is will there is way -जहां उत्कंठा होती है "सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः" यह जैसी पूर्व की प्रत्येक नगर में प्रायः नगरशेठ के आदर्श स्थान पर जैन ही वहां मार्ग मिलता ही है - इस कहावत के अनसार मैं बंबई ध्वनि है वैसी ही उसकी प्रतिध्वनि पश्चिम में व्यापक है कि There अधिष्ठित होता था और सारी जैन समाज के लोग नगर के मखिया पहुँचा। दस पंदरह रोज ठहरने पर ज्ञात हुआ कि पूज्यवर के is no greater religion than service अथात् 'सेवा से बढ़कर कोई निर्यामक एवं सूत्रधार समझे जाते थे। हमें चाहिए कि चाहे देश या स्वास्थ्य में सुधार होता जा रहा है और पंजाब से पधारे हए प्रसिद्ध धम नहीं है।
विदेश में, प्रान्त या ग्राम में जहाँ कहीं भी हम रहते हों, चाहे वैद्यराजजी भी पुरस्कारपूर्वक विदा किये गये हैं, इसलिये मैंने भी
उद्योग, व्यवसाय या अमलदारी के लिये स्थायी या अस्थायी रूप वापिस मद्रास लौटने का निश्चय किया। लेकिन विधि के कार्यक्रम "परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय दहन्ति गावः।
से निवास करते हो, वहाँ की प्रजा के हित के लिये अपने तन मन
और धन का विवेकपूर्वक भोग देना चाहिए और भातृभाव और में उनथी की श्मशानयात्रा में सम्मिलित होने का विधान था उस परोपकाराय वहन्ति नद्यः परोपकाराय सतां विभूतयः।।"
वात्सल्यभाव इतना बढ़ाना चाहिए कि हम प्रजा के प्राण बन जावें भावी को कौन मिटा सकता था। अर्थात् एक पीछे एक सामाजिक
अर्थात् उनके सुखदुःख में सम्पूर्ण सहयोग और सहानभूति रखनी वधार्मिक कार्य सामने आते ही गये और पूज्यवर आचार्य भगवंत सर्य, चंद्र, सितारे जल, तेज, वायु एवं वनस्पति आदि सारे चाहिए ताकि हमारी तरफ प्रजा के हदय में प्रेम बढ़ता जाये। इस का मझे ठहरने के लिये संकेत होता ही गया और जाने जाने के पदार्थ परोपकार अर्थात् सेवा के लिये प्रवृत्ति करते हुए नजर आ प्रकार की प्रवत्ति से हम केवल अपने समाज की ही प्रतिष्ठा बढ़ा विचार में ही और 25 दिन व्यतीत हो गए।अंतिम दिन उनकीनिश्रा रहे हैं और आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि कर रहा है कि सकेंगे, यही बात नहीं, परन्तु जैन शासन की सच्ची मार्गप्रभावना में ईश्वरनिवास में पौषध किया और प्रतिक्रमण करते हुए Every action has got reaction - प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया भी कर सकेंगे। प्रजा में जैन धर्म के आदर्श सिद्धान्तों की तरफ संसार-दावानल की स्तति का आदेश पज्यवर ने स्वयं श्रीमख से अवश्य है-इसलिये यह निश्चय हकि दूसरा का सुख देकर ही स्वाभाविक आकर्षण पैदा होगा और उनका अनसरण करने की मझे दिया। अर्थात श्रावक के तौर पर उनके साथ अंतिम हम सुख ले सकते हैं, दूसरे को दुःख देकर सुख की आशा रखना उनकी बत्ति बरती जायेगी। टलिये प्रतिक्रमण करने का और उनकी निश्रा में पौषध करने का मझेही भयंकर भुजंग के मुख से अमृत की आशा रखने के समान है। प्रथम उपाय सौभाग्य प्राप्त हुआ।
उदाहरणार्थ अगर हम वृक्ष के मीठे फल खाने की आशा रखते हैं।
तो उससे पहिले हमें उसके मूल में अमृतजल का सिंचन करना ही स्वावलम्बन उन दिनों में मेरा सोना बैठना प्रायः इश्वरानवास म हा हान पड़ेगा। अगर गौरस के सेवन से हम अपना स्वास्थ्य सुन्दर बनाना चाहे व्यक्ति हो, समाज हो, या देश हो, अपनी उन्नति की से समय पाकर मैं पूज्यवर के साथ सामाजिक, दार्शनिक एवं चाहते हैं तो गौपालन का सर्वोत्तम तरीका अपनाना ही पड़ेगा। साधना में स्वावलम्बन नितान्त आवश्यक है। जब तक हम धार्मिक विविध विषयों पर वार्तालाप करता रहता था और अनेक अगर हम अपने पैरों को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो मार्ग को स्थायी न बनेंगे तब तक जीवन आकल व्याकुल बना रहेगा और प्रश्नोत्तर भी चलते रहते थे। एक रोज मैंने पूछा कि पूर्वकाल में निष्कंटक बनाने के लिये परिश्रम उठाना ही पड़ेगा। कहावत है बिना निराकलता के जीवन का विकास हो नहीं सकता। इसलिये जैन लोगों के प्रति आम प्रजा में बड़ा प्रेम और आदर था। इतिहास कि As you sow so you reap - जैसा बोवेंगे वैसा काटेंगे। हमारे जहाँ तक बने वहाँ तक आवश्यकताएँ कम करते जाना चाहिये उसका साक्षी है, परन्तु आज हमारी प्रतिष्ठा इतनी नीचे गिर गई पूज्य धर्माचार्यों ने इस विधि के ध्रुव सिद्धांत को यथार्थ रूप में ध्यान और जितनी आवश्यकताएँ अनिवार्य हैं उनकी पूर्ति अपने आप है कि प्रजा हमें तिरस्कार की दृष्टि से देखती है और हमारे समाज में रखकर जीवन में सेवा एवं परोपकार पर बहुत ही भार दिया है। करने का प्रयत्न करना चाहिए। समाज के लिये भी यही बात है में भी संकीर्णता, स्वार्थपरायणता और विवेकशन्यता दिन यागशास्त्र मश्रावका कालाकाप्रय हान कालय श्राहमचन्द्राचाय कि अपनी उन्नति के लिये कार्यबल,बद्धिबल,धनबल,विद्याबल प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। इसलिये कौनसे ऐसे उपाय हैं जिससे
ने आदेश दिया है। उसी तरह से श्री हभिद्रसूरि ने धर्मबिन्दु में या राजतंत्रबल आदि जितनी भी शक्तियों की जरूरत है, उनकी अपनी सामाजिक उन्नति साध सकें और आम प्रजा के हृदय पर
लोकवल्लभ बनने का उल्लेख किया है। लोकप्रिए एवं पर्ति के लिये समाज में हर प्रकार के मनुष्यों को तैयार करना
लोकवल्लभ बनने के लिए स्वार्थ त्याग और सेवा उपासना को प्रभाव डाल सकें। पूज्यवर ने इसके समाधान में सुन्दर शैली से
चाहिये। हमें हमारी देह, कुटुम्ब, धन, धर्मस्थान आदि के रक्षण आदर देना ही पड़ेगा। प्रतिपादन करते हुए ऐसे अमूल्य पांच विषय बताये जिन पर मनन
के लिये दूसरों के भरोसे रहना अथवा अन्य की गरज़ करना या मुंह करने से मुझे दृढ़ निश्चय हो गया कि वास्तव में ये हमारे उन्नति
प्राचीन काल में जैन समाज की प्रतिष्ठा इतनी बढ़ी चढ़ी थी, ताकना पड़े, इससे ज्यादा क्या भूल हो सकती है। आज हमारे के उत्तमोत्तम उपाय हैं। वे पांच उपाय ये हैं - (1) सेवा,
इसका खास कारण सेवा और परोपकार था। सारी समाज को समाज को विकट परिस्थिति का कटु अनुभव करना पड़ता है,
महाजन और श्रेष्ठ (शेठ) का पद प्राप्त था, इतना ही नहीं परन्तु उसका कारण यही है कि हम स्वावलम्बी नहीं हैं। अर्थात् सिवाय (2) स्वावलम्बन, (3) संगठन, (4)शिक्षा, (5) साहित्य,
यवनों के शासन में भी उनकी भाषा के मुताबिक सर्वोपरि पद व्यापार के और किसी क्षेत्र में हम लोग जैसी चाहे वैसी प्रगति "शाह" का खिताब जैन समाज को प्राप्त था। इसी जैन समाज के साधते नहीं, इसलिये इस स्वराज्य प्राप्ति के सुन्दर समय में भी
सुपुत्र जगडुशाह,भामाशाह,पेथड़शाह,समराशाह,खेमादराणी, हमारी आवाज कोई सुनता नहीं। उलटे हमारे सामाजिक व सेवा में ही मानव जीवन का सार है। आगम, उपनिषद्, वस्तुपाल, तेजपाल, विमलशाह आदि नररत्नों की अमर धार्मिक अधिकारों पर कई स्थानों में बलात्कार हो रहा है, परन्तु पुराण, कुरान एवं बाईबल आदि जितने भी संसार में धर्मशास्त्र हैं कहानियाँ आज भी भारत के इतिहास में गाई जा रही हैं। वह भी किसको कहें। हम यदि जीवन के उपयोगी सब ही क्षेत्रों में आगे orayan
सेवा