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महापुरुषों का जीवन प्रारम्भ से ही महान् होता है। उनकी महत्ता के चिन्ह पालने में ही परिलक्षित हो जाते हैं जब मां इच्छाबाई अंतिम सांसें ले रही थीं, तब छगन पूछता है कि मां तू मुझे किसके सहारे छोड़कर जा रही है, तब माँ ने कहा "मैं तुझे अरिहंत के चरणों में छोड़कर जा रही हूं। तू अरिहंत के प्रति समर्पित हो जाना। कहने की आवश्यकता नहीं है कि नन्हा छगन तीर्थंकर के चरणों में चला जाता है और यही छगन एक दिन दिव्य विभूति, गुजरात गौरव और पंजाब केसरी आचार्य श्रीमंद् विजयवल्लभ सूरीश्वर बन जाता है तब लगता है। माँ इच्छाबाई का वचन सार्थक हुआ।
माता के वचन छगन के हृदय में अंकित हो गए थे। उस के स्वर्गवास के बाद इस असार संसार से छगन विरक्त हो गया। उसकी दृष्टि वैराग्य और चरित्रपर केन्द्रित हुई। एक दिन वह आत्माराम जी महाराज से धर्म धन मांगता है और अपने बड़े भाई आदि सगे सम्बन्धियों के विरोधों के बावजूद दीक्षित हो जाता है। इस प्रकार वह छगन से विजय वल्लभ बना।
· जिस मनुष्य के हृदय में लक्ष्य पाने की तीव्र अभिलाषा होती है उसे कभी न कभी मार्ग अवश्य मिल जाता है। जिस मनुष्य के भीतर शुभ आकांक्षाओं का बीज वपन होता है, कि वह एक दिन अंकुरित होकर विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। मुनि श्री वल्लभ विजय में आध्यात्मिक प्रगति की अभिलाषा जगी और उन्हें योग्य गुरु मिल गए। न्यायाम्भोनिधि आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वर जी महाराज जिनका प्रसिद्ध नाम आत्माराम जी महाराज था अपने समय के अप्रतिम विद्वान थे। उन्हें आगमों का गहन अध्ययन था। मुनि वल्लभ विजय ने उन्हीं के सान्निध्य में
माँ के वचन पूरे हुए
-आचार्य श्रीमद् विजयेन्द्र दिन सूरीश्वर
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ज्ञान की साधना की। पू. आत्माराम जी महाराज ने उन्हें अन्तिम संदेश दिया था कि "वल्लभ जिन-मंदिरों की स्थापना पूर्ण हो गई है। अब तुम सरस्वती मंदिरों को स्थापना करना। आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज ने गुरु के इस आदेश का पालन जीवन के अन्त तक किया। आचार्य विजय वल्लभ ने देखा कि समाज की उन्नति और प्रगति में धर्म की प्रगति और प्रभावना निहित है। इसलिए सबसे पहले समाज का उद्धार आवश्यक है। समाज केवल धर्म से नहीं चल सकता उसके लिए व्यावहारिकता की भी आवश्यकता है। उन्होंने धार्मिक और व्यावहारिक दोनों शिक्षाओं को आवश्यक बताया। इसी दृष्टि से उन्होंने महावीर जैन विद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करवाई।
जीवन की अंतिम संध्या में उन्होंने जैन युनिवर्सिटी की स्थापना की बात कही थी। इसकी स्थापना से जैन धर्म-समाज-संस्कृति, दर्शन और साहित्य के प्रचार और प्रसार का कार्य और व्यवस्थित ढंग से होगा। आज जैन युनिवर्सिटी की कितनी आत्यन्तिक आवश्यकता है हम समझ सकते हैं।
महान् व्यक्ति अपने गुणों के कारण ख्यात होते हैं। उनके गुणों में गजब की आकर्षक शक्ति होती है उनके गुणों के दर्पण में प्रतिभा प्रतिबिम्बित होती है। उनके गुण ही दूत का कार्य करते हैं। संस्कृत भाषा के एक कवि ने कहा है:
गुणाः कुर्वन्ति दूतत्वं दूरेऽपि वसतां सताम् । केतकीगंधमा धातुं स्वयमायान्ति षट्पदाः ।।
केतकी भौरों को बुलाने नहीं जाती। भौरें उसकी सुगन्ध से आकर्षित होकर अपने आप आ जाते हैं। वैसे ही जो महापुरुष होते हैं वे आत्मप्रशंसा नहीं करते वे किसी को बुलाने नहीं जाते, उनके दूत रूपी गुण ही संसार को आकर्षित कर ले आते हैं। आचार्य
विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज के गुणों से केवल जैन हिन्दू नहीं प्रत्युत मुसलमान भी प्रभावित हुए थे। अनेक मुसलमानों ने उन्हें मान पत्र भेंट किया था। वे उन्हें पीर और फकीर मानते थे।
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महापुरुषों की वाणी अद्भुत माधुर्य से सिक्त होती है उनके मुख से कभी कटुशब्द नहीं निकलता। आगमों में कहा भी गया है:
महुरं निउणं, कच्चावाडियं अगव्वियमतुच्छं । पुव्विं मइसंकलियं, भणांति जं धम्मसंजुतं ।। (महान व्यक्ति अपने वचन अतीव मधुर, अर्थयुक्त, और विवेकपूर्वक बोलते हैं। उनके कथन में अभिमान या गर्व का अंश भी नहीं होता। )
पूज्य गुरुदेव का हृदय अत्यन्त कोमल था। उनकी वाणी में माधुर्य और आकर्षण शक्ति थी। वह वाणी ओठों की नहीं अन्तर की थी। इसलिए उसमें सनातन सत्य का दिग्दर्शन होता था।
आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज का जीवन आदर्श एवं प्रेरणाप्रद था। अनके गुणों से समन्वित उनका व्यक्तित्व था। उनके असीम गुणों में से एकाध गुण हम भी अपना लें तो हमारा जीवन नंदनवन बन जाए।
वास्तविक शिक्षा वही है जो चरित्र निर्माण की प्रेरणा दें। शिक्षा से विद्यार्थी शुद्ध एवं आदर्श जीवनवाला बने। उसमें मानवता, करूणा और प्राणिमात्र के लिये मैत्रीभावना हो। ऐसे विद्यार्थी ही समाज के हीरे होते हैं।
- विजय वल्लभ सरि
असीम को सीमित नहीं किया जा सकता। विराट् का वर्णन संभव नहीं। उसके वर्णन के लिए शब्द, भाषा, भाव अल्प ही रहते हैं और रहेंगे। महापुरुषों की जीवन-सरिता विशाल विराट होती है। हमारी सीमित दृष्टि वहाँ तक पहुँचने में असमर्थ है। तट पर खड़े रहकर हम केवल सीमित वर्णन ही कर सकते हैं। हम उनके चरणों में गिरकर इतना ही कह सकते हैं कि : महान्त एवं जानन्ति महतां गुण
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