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रूढ़ि के साथ जीने में कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता रूढ़ि बल्लभ के विचारों से पूर्णतया सहमत थे। पर विरोध के डर से काव्य भी हिन्दी में लिखा। उनके प्रवचन की हिन्दी सीधी-सादी अगर शस्त्र के विरुद्ध भी होगी तो वह स्वीकार्य होती है रूढ़ि के कोई नया कदम नहीं उठाते थे।
सर्वसाधारण के लिए ग्राह्य थी। काव्य की भाषा भी सरल, सरस पुजारियों के लिए। लोग धर्म का पालन नहीं करते पर रूढ़ियों का आज तीन दशक के बाद कई विरोधी आचार्य, मनि एवं और सुबोध है तथापि उनकी रचनाओं में काव्य, अलंकार, छंद, पालन करते हैं। रूढ़ियों से सत्य ढंक जाता है। वह व्यक्ति को श्रावकों के मन में लग रहा है कि पचास वर्ष पहले विजय बल्लभ लय एव भावा की कमी नहीं है। अंधा बना देती है। विचार शक्ति को कुंठित कर देती है। किसी ने जो कहा और जो किया वह पूर्णतः ठीक था। वे अब पश्चाताप उनके कवि हृदय के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि युग का अपवाद कालान्तर में रूढ़ि का रूप धारण कर लेता है। की आग में सुलग रहे हैं। उस समय अगर सभी आचार्य विजय विजय वल्लभ में जहां सामाजिक, राष्ट्रीय एवं धार्मिक व्यत्तित्व रूढ़ि एक बार समाज में प्रचलित हो जाने पर वह जनमानस पर वल्लभ के पथ पर चलते तो आज जैन धर्म, समाज एवं संस्कृति के दर्शन होते हैं वहां कवि व्यक्तित्व का भी अद्भुत संयोजन एवं कब्जा, अधिकार जमा लेती है। तत्युगीन नियम उस समय के का इतिहास कछ और होता।
दिग्दर्शन होता है। उनके द्वारा रचित स्तवन, सज्झाय एवं पूजाएँ लिए उपयोगी होता है, पर बाद में वह निरर्थक बन जाता है,
गाकर आज भी भावुक भक्त भाव-विभोर हो जाते हैं। क्योंकि समय सदा एक सा नहीं रहता।
विजय वल्लभ और काव्य धर्म चाहे कितना ही महान, मौलिक और आदर्शमय क्यों न
विजय बल्लभ और चमत्कार हो कालान्तर में वह रूढ़ि ग्रस्त हो जाता है। उस में विकृतियां
___ आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. एक उत्तम
कोटि के कवि थे। उनके काव्य की महत्ता जानने और समझने के आनी प्रारम्भ हो जाती हैं। जैन धर्म भी इसका अपवाद न रहा।
आचार्य विजय वल्लभ का इस धरती पर अवतरित होना भी जैन धर्म ने भी परिवर्तन के कई मोड़ देखे हैं। कई बार लुप्त लिए प्रो. जवाहर चंद्र पटनी द्वारा लिखित शोध प्रबन्ध 'विजय
एक चमत्कार ही था। विजय वल्लभ के जीवन के साथ अनेक होते-होते बचा है। बचा है उसका कारण है। वह युगानुरूपढ़ल वल्लभ के वाड्मय में दर्शन, चिंतन और काव्य अवश्य पढ़ना
चमत्कारिक घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। सच तो यह है कि न बे चाहिए। आनंदधनजी यशोविजय जी, चिदानंद जी,आत्मारामजी जाता था। युगानुरूप ढल जाने के एक पक्ष का नाम अनेकान्तवाद
चमत्कार करते थे और न चमत्कारों में विश्वास रखते थे; पर है। विजय वल्लभ ने इसी अनेकान्तवाद को आगे रखकर जीवन म, की जो काव्य परंपरा चली आ रही थी उसका आचार्य विजय
चमत्कार स्वयं घटित हो जाते थे। इन चमत्कारों का महत्व उनके और कार्य की साधना की। वल्लभ ने भली-भांति निर्वाह किया उनकी भक्ति सखा और
भक्त वर्ग के लिए हो सकता है; पर उनके लिए उनका कोई महत्व सेवक भाव से पगी है। विजय वल्लभ के समकालीन कई प्रभावक आचार्य थे वह
न था।
जैन धर्म पर्ण रूप से गुजरात में फला-फूला और विकसित समय जैन धर्म के लिए स्वर्ण युग था। आज जिनके नाम से
संसार में कछ ऐसी प्रतिभाएं जन्म लेती हैं जिनका प्रत्येक समुदाय चल रहे हैं वे सभी आचार्य उनके समकालीन थे। आचार्य हुआ। अतः जैन श्रमण कवियों ने गुजराती भाषा में काव्य रचना
व्यवहार संसार के लिए चमत्कार होता है। ऐसे सन्तों के कई विजय वल्लभ के कार्य के प्रमुख दो क्षेत्र थे एक धार्मिक दूसरा की है। मध्यकालीन कवि आनंदधन जी यशोविजय जी,
उदाहरण हैं, हेमचन्द्राचार्य, सिद्धसेन दिवाकर, महायोगी सामाजिक।उन्होंने जो भी परिवर्तन किए इन्हीं दो क्षेत्रों में किए। चिदानंदजी आदि ने गुजराती-हिन्दी मिश्रित काव्य रचा है।
आनंदधन नानक, कबीर, तुलसी। आधुनिक समय में भी ऐसे कई उनके परवर्ती सभी कवियों ने जैसे उदयरन जी. उत्तम विजयी । धार्मिक क्षेत्र में उन्होंने स्वप्नों की बोलियों के द्रव्य को साधारण
महापुरुष हुए हैं, रमण महर्षि, राम कृष्ण परमहंस, स्वामी जी, पद्मविजयजी, लक्ष्मी विजयजी, वीर विजयजी आदि ने खात में ले जाने की बात की, साध्वी प्रवचन का समर्थन किया।
दयानन्द, विवेकानंद, महात्मा गांधी आदि कई नाम गिनाये जा इस प्रकार छोटी-मोटी अनेक बातें हैं जो एक रूढ़ि से एक परम्परा विशुद्ध गुजराती भाषा में रचनाएँ की हैं।
सकते हैं। चमत्कारों का राज यही होता है कि उनमें अद्भुत से हटकर थीं। सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने पहला काम शिक्षण
बीसवीं शती में दो आचार्य ऐसे हुए जिन्होंने उस परंपरा से मनोबल होता है। अटल आत्मविश्वास होता है, संयम और संस्थाएं स्थापित करने की प्रेरणा दी। दहेज आदि कप्रथाएँ मिटाने अलग हिन्दी में काव्य रचना की। वे हैं आचार्य श्रीमद् विजयानंद चरित्र की प्रबल शक्ति होती है, जो आम जनता में नहीं होती। का प्रयत्न किया। ध्वनि वर्धक यन्त्र का उपयोग प्रारम्भ किया। सूरि एवं आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरि। उन्होंने केवल चमत्कारों का राज यही है वैज्ञानिक तरीके से। ऐसा व्यक्ति जहां
इन बातों का उनके स्तवन और समाय की रचना नहीं कि वरन पूजाओं की भी रचना जाएगा वहां का वातावरण बदल जाएगा, चमत्कार घटित होंगे। समकालीन आचार्यों ने घोर विरोध किया। कछ मनियों. आचार्यों की। पूजाओं की रचना करने वाले बासवा शता क एकमात्र चमत्कारों का दूसरा रहस्य है, अटल श्रद्धा। कई पराने गरुभक्त एवं श्रावकों ने तो उनके प्रत्येक विचार का विरोध किया। उन्होंने आचार्य विजय वल्लभ सूरि थे। उन्हें विभिन्न राग-रागनियों का पंजाबी अपने जीवन के अनुभवों की बातें करते हैं, विजय बल्लभ विरोध को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। उनके विरोध में यथेष्ट ज्ञान था। उनके काव्य में गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी और के चमत्कारों का वर्णन करते हैं, तो हमारा सिर उनकी विजय ईष्या की जलन अधिक थी। कछ आचार्य ऐसे थे जिनका सम्बन्ध पंजाबी शब्दों का प्रयोग हुआ है।
महिमा सुनकर नत हो जाता है। पंजाबियों को विजय वल्लभ विजय वल्लभ के साथ सौहार्दपूर्ण था । वे न तो विरोध करते थे आचार्य विजय बल्लभ की मातृभाषा गुजराती थी, पर चमत्कारिक पुरुष इसलिए लगते थे कि उनकी उन पर अटल और न समर्थन। तटस्थ रहे। कुछ आचार्य ऐसे भी थे जो विजय उन्होंने राष्ट्रीय एकता का विचार कर हिन्दी भाषा अपनायी और श्रद्धा थी। अविचल विश्वास था। श्रद्धा चमत्कारों की जननी है।