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आराधनासमुच्चयम् ६
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हो जाती हैं। अर्थात् निजस्वभाव के आस्वादन की बाधक कषायों के मन्द हो जाने से निज स्वभाव का स्वाद आता है तो शेष सर्वस्वाद नीरस एवं बेस्वाद हो जाते हैं। निज स्वभाव स्पर्श के समक्ष परस्पर्श की इच्छा उत्पन्न ही नहीं होती। निज स्वभाव का अवलोकन किया तो अन्य कुछ देखने योग्य नहीं रहता । स्वभाव के अनहद नाद को सुना तो अन्य कुछ सुनने को नहीं रह जाता। निज गंध में रम जाने पर अन्य गन्ध-ग्रहण में मन स्वयमेव नहीं जाता। इस प्रकार अपने स्वभाव का अवलम्बन लिया तो पाँचों इन्द्रियों का निरोध स्वयमेव हो जाता है।
आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी के रागांश इतने मन्द हो जाते हैं कि सांसारिक भोगों के प्रति उनकी आसक्ति नहीं रहती। उनकी कोई भी क्रिया यत्नाचार के बिना नहीं होती, न उनकी आहारादि में आसक्ति होती है और न शरीर के प्रति अनुराग । इसलिए शरीर से विरक्त होकर वे दिन में एक बार भोजन करते हैं और स्नानादि का त्याग कर नग्न मुद्रा धारण करते हैं। वे अन्तर्मुहूर्त के भीतर-भीत्तर सातवें गुणस्थान में जाकर आत्मानुभव रस में लीन हो जाते हैं। जब आत्मानुभव रस के स्वाद से च्युत होते हैं तो समता, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, संस्तवन और कायोत्सर्ग रूप षट् आवश्यक क्रियाओं में लीन हो जाते हैं। इन महात्माओं के हृदय से भोगों की वाञ्छा निकल जाती है। अतः वे आत्मनिष्ठ रहते हैं परनिष्ठ नहीं । परनिष्ठा तब होती है जब पर में सुख माना जाता है। महामना मुनिराज आत्मस्वभाव में लीन रहते हैं। वे क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर शुक्ल ध्यान रूपी शस्त्र के द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर अर्हत बन जाते हैं और अपने केवलज्ञान के द्वारा सर्व पदार्थों का अवलोकन कर भव्य जीवों को सन्मार्ग का उपदेश देते हैं। अन्त में अघातिया कर्मों का नाश कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं। इनकी आत्मा परम पवित्र होती है, परम मंगल रूप होती है।
इन महापुरुषों के संस्तवन, चिंतन, स्मरणादि से अनादिकालीन कर्मशृंखला टूट जाती है।
" जिसके हृदय में पंचपरमेष्ठी स्थित होते हैं उसके निविड़ घोर कर्मबन्ध भी ढीले पड़ जाते हैं, जैसे - चन्दन की शाखा पर मयूर के बैठ जाने से चन्दन के चारों तरफ लिपटी हुई सर्प की कुण्डलियाँ ढीली पड़ जाती हैं अर्थात् सर्प चन्दन वृक्ष को छोड़कर भाग जाते हैं।" (कल्याणमन्दिरस्तोत्र ८ )
चतुर्विंशति
नाम मंगल - णमो अरिहंताणं आदि पंच परमेष्ठी के नाम का उच्चारण करना, तीर्थंकरों का नाम लेना नाम मंगल है।
स्थापना मंगल कृत्रिम - अकृत्रिम चैत्य- चैत्यालयों की वन्दना करना, उनकी स्तुति करना स्थापना मंगल है।
द्रव्यमंगल - जिनेन्द्र भगवान के शरीर का रंग या उनके शरीर की ऊँचाई, आयु आदि का कथन करके स्तवन करना द्रव्य मंगल है। जैसे -