Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 13
________________ आराधनासमुच्चयम् -४ निबद्ध और अनिबद्ध के भेद से मंगल दो प्रकार का है। जो ग्रन्थ की आदि में ग्रन्थकार के द्वारा इष्ट देवता को नमस्कार निबद्ध कर दिया जाता है अर्थात् श्लोकादि रूप में रचकर लिख दिया जाता है उसे निबद्ध मंगल कहते हैं और जो ग्रन्थ की आदि में ग्रन्थकार द्वारा देवता को नमस्कार किया जाता है जिसे लिपिबद्ध नहीं किया जाता है, तथा शास्त्र लिखना या बाँचना प्रारंभ करते समय मन, वचन, काय से जो नमस्कार किया जाता है उसे अनिबद्ध मंगल कहते हैं।' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के भेद से मंगल तीन प्रकार का है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का लक्षण आगे कहेंगे। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारण करने से आत्मा पवित्र होती है और इनसे द्रव्य एवं भाव कर्म का नाश होता है, आत्मा को परम पद की प्राप्ति होती है। अतः ये तीनों मंगलस्वरूप हैं। अरिहंत, सिद्ध, साधु और जिनधर्म के भेद से मंगल चार प्रकार का है। जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय रूप चार घातिया कर्मों का नाशकर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तबल रूप चार अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर लिया है, वे अरिहंत कहलाते हैं। ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का नाश कर जिन्होंने सम्यग्दर्शनादि आठ गुणों को प्राप्त कर लिया है तथा जो लोक के अग्र भाग में पुरुषाकार से स्थित हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं। ___ जो रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग की साधना करते हैं तथा अपनी साधना में लीन रहते हैं, वे साधु कहलाते हैं। जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित अहिंसामय वा वस्तु स्वभाव रूप धर्म है। इन चारों की आराधना, उपासना, अर्चना करने से आत्मस्थ कर्मों का विनाश होता है, द्रव्यमल और भावमल नष्ट होते हैं अत: ये चार मंगल स्वरूप हैं। पंच परमेष्ठी के स्तवनरूप पाँच मंगल हैं। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हैं। सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी को अरिहंत आप्त कहते हैं। स्वात्मोपलब्धि, शिवसौख्यसिद्धि को प्राप्त, कृतकृत्य सिद्ध कहलाते हैं। __जो शिष्यों को शिक्षा-दीक्षा देते हैं, स्वयं दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार, चारित्राचार और वीर्याचार रूप पाँच आचारों का पालन करते हैं तथा भव्य जीवों से इन पंचाचारों का पालन कराते हैं उनको आचार्य कहते हैं। १. तत्थ णिबद्धं णाम जो सुसस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धदेवदाणमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं। जो सुत्तस्सादीए सत्तारेण कायदेवदाणमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं। ध.१।१, १, १/४१/५

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