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आराधनासमुच्चयम् २
आई मंगलकरणे सिस्सा लहुपारगा हवंति त्ति ।
मझे अव्वुच्छित्ति विज्जा विज्जाफलं चरिमे ।। आदि में (प्रारंभ में) मंगलाचरण करने से शास्त्र की निर्विघ्न समाप्ति होती है। मध्य में मंगलाचरण करने से शिष्य शीघ्र विद्या के पारगामी होते हैं और अंत में मंगलाचरण करने से विद्या का फल प्राप्त होता
ग्रन्थ के प्रारंभ में मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता इन छह अधिकारों का कथन करना अति आवश्यक है, क्योंकि इनके बिना ग्रन्थ में प्रमाणता नहीं आती है और शास्त्र का पूर्ण ज्ञान भी नहीं होता है। इसीलिए आचार्य ने ग्रन्थ के प्रारंभ में सर्वप्रथम मंगलाचरण किया है क्योंकि मंगलाचरण में छहों अधिकार गर्भित हो जाते हैं।
नास्तिकता के परिहार, शिष्टाचार के परिपालन, पुण्य की प्राप्ति और विघ्नों का विनाश करने के लिए मंगलाचरण किया जाता है।
वह मुख्य मंगल भाव और द्रव्य के भेद से दो प्रकार का भी कहा है।
आंतरिक भावना से जिनेन्द्र भगवान के गुणों का स्मरण करना भाव मंगल है तथा 'जिनेभ्यो नमः । इस प्रकार वचनों से उच्चारण करना, हाथ जोड़कर नमस्कार करना द्रव्य मंगल है।
इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारक पंच परमेष्ठी के गुणों के चिंतन स्वरूप भाव मंगल और 'प्रणम्य' रूप शब्द से द्रव्य मंगल किया गया है।
इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम आचार्यदेव ने रत्नत्रय के धारक पंच परमेष्ठी को नमस्कार करके आगम में सारभूत आराधनासमुच्चय को कहने की प्रतिज्ञा की है। प्रणम्य - प्रकर्षेण मनोवचकाययोगैः नम्य नत्वा, उत्कृष्ट मन, वचन और काय की एकाग्रता से पंच परमेष्ठी को नमस्कार करके इस ग्रन्थ के कहने की प्रतिज्ञा की है। प्रवक्ष्यामः - यह आराधना ग्रन्थ है। इस आराधना के यथार्थ स्वरूप का कथन करने के लिए 'प्रवक्ष्यामः' इसका प्रयोग किया है अर्थात् उत्कृष्ट रूप से आराधनासमुच्चय को कहूँगा |
अथवा - धवला में मंगल के छह अधिकार कहे हैं - मंगल, मंगलकर्ता, मंगलकरणीय (मंगल करने योग्य), मंगल का उपाय, मंगल के भेद और मंगल का फल।
मंगल का लक्षण तो पूर्व में लिख चुके हैं। चौदह विद्याओं के पारगामी आचार्य मंगलकर्ता हैं। भव्यजन मंगल करने योग्य हैं अर्थात् भव्य जीवों के अनादि काल से बँधे हुए कर्मों का विनाश मंगल करने से होता है। अतः भव्यजीव मंगलकरणीय (मंगल करने योग्य) हैं। रत्नत्रय की साधक सामग्री (आत्माधीनता, मन-वचन-काय की एकाग्रता आदि) मंगल का उपाय है।