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श्रीरविचन्द्रमुनीन्द्रविरचितम्
आराधनासमुच्चयम्
तस्योपरि पूज्य १०५ गणिनी आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी विरचिता
भाषा टीका
१. सम्यग्दर्शनाराधना:
मंगलाचरण एवं ग्रन्थरचना की प्रतिज्ञा सम्यग्दर्शनबोधनचरित्ररूपान् प्रणम्य पंचगुरून् ।
आराधनासमुच्चयमागमसारं प्रवक्ष्यामः ॥१॥ अन्वयार्थ – सम्यग्दर्शनबोधनचरित्ररूपान् - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप। पंचगुरून् - पंच परमेष्ठी को। प्रणम्य - नमस्कार करके । आगमसारं - आगम के सारभूत । आराधनासमुच्चयं - आराधना समुच्चय ग्रन्थ । प्रवक्ष्याम: - कहूँगा।
भावार्थ - किसी भी कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिए सर्वप्रथम मंगलाचरण किया जाता है।
म - पापं । गलं - गालयति, नाशयति इति मंगलं - जो पापों का नाश करता है उसको मंगल कहते हैं अथवा मंगं - शुभं, लाति - देता है उसको मंगल कहते हैं। अर्थात् - जिनका चिंतन, मनन, स्मरण, कीर्तन करने से अनादि काल से बंधी हुई पाप रूपी साँकल टूट जाती है - वा पाप कर्मप्रकृति का शुभ कर्मप्रकृति में संक्रमण हो जाता है तथा पुण्यानुबंधी पुण्य कर्म का आस्रव होता है उसको मंगल कहते हैं।
प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारंभ में मंगलाचरण करना परमावश्यक है, क्योंकि मंगलाचरण करने से शुभ कर्मों का आगमन होता है और अशुभ कर्मों के फल देने की शक्ति का अभाव होता है। पंचास्तिकाय में जयसेन आचार्य ने लिखा है