Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 8
________________ आराधनासमुच्चयम्१५ जिनको सम्यग्दर्शन पूर्वक ज्ञान आराधना इष्ट है उन्होंने सम्यग्दर्शन आराधना के अनन्तर ज्ञान आराधना का कथन किया है, ऐसा प्रतीत होता है। स्वयं रविचन्द्र आचार्य ने आराधक जन का कथन करते समय १७१८-१९ गाथा में कथन किया है कि सम्यग्दृष्टि के द्रव्यात्मक और भावात्मक दोनों ही ज्ञान सम्यक् होते हैं। अतः दर्शन आराधना के बाद ज्ञान आराधना कही है और मिथ्यादृष्टि के ग्यारह अंग तक के द्रव्य श्रुतज्ञान को देखकर प्रथम ज्ञान आराधना कही है, इसमें आचार्यों में परस्पर विरोध नहीं है। पूर्ववत्ती आचार्यों की प्राकृत रचनाओं का अनुसरण कर लिखे गए इस ग्रन्थ में २५२ गाथाएँ आर्याछन्द में निबद्ध हैं। इस सम्पूर्ण ग्रन्थ में प्राकृत भाषा के दो और संस्कृत भाषा के पाँच, कुल सात उद्धरण हैं। अनेक पदों में कुन्दकुन्दाचार्य का अनुसरण दृष्टिगोचर होता है, जैसे कुन्दकुन्द ने लिखा है दसणमूलो धम्मो उवइड्रो जिणवरेहिं शिष्याणं। तं सोऊण सकण्णो देसणहीणो ण वंदिथ्यो ।। इसी प्रकार इन्होंने पूर्वार्ध का अनुसरण करते हुए लिखा - वक्षस्य यथा मूलं प्रासादस्य च यथा अधिष्ठानं । विज्ञानचरिततपसां तथा हि सम्यक्षमाधारः। और भी बहुत से श्लोकों में पूर्वाचार्यों का अनुसरण है। इसके पठन, मनन, चिन्तन से मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि भव्य जीवों पर कृपादृष्टि रखने वाले आचार्यदेव ने इस लघु कृति में गागर में सागर की कहावत को सत्यकर चतुर्विध आराधना और इससे सम्बन्धित आराध्य, आराधक जन, आराधनोपाय और आराधना के फल का सुव्यवस्थित रूप से कथन किया है। इस ग्रन्थ की रचना में अधिकतम कथन तप आराधना के अन्तर्गत द्वादश अनुप्रेक्षाओं पर किया गया है और द्वादश अनुप्रेक्षाओं के वर्णन का क्रम भी वहीं है जो शिवार्य, वट्टकेर और कुन्द-कुन्दाचार्य ने अपनाया है तथा यह स्वाभाविक भी है क्योंकि शिवार्य की कृति 'भगवती आराधना' आत्मशांति रूप समाधिमरण के लिए रचित प्रत्येक ग्रन्थ के लिए एक महत्वपूर्ण आधार ग्रन्थ है। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और कायक्लेशों की वृद्धि करने वाले मिथ्यातपश्चरण रूपी हलाहल विष का वमन कराकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप रूपी अमृत प्रदान करने के लिए यह ग्रन्थ परमौषधि है। इस ग्रन्थ में संक्षेप से ११ अंग और चौदह पूर्व के सारभूत चारों अनुयोगों का विषय पूर्ण रूप से समाहित है। बड़ी कठिनता से जिसका विषय जाना जाता है, जिसमें विद्वज्जनों का ही प्रवेश है मुझ जैसे अज्ञानी का नहीं, फिर भी मैंने इसकी भाषा टीका करने का दुःसाहस किया है। इसके विषयों को अन्य ग्रन्थों के आधार पर सरल बनाया है। इसमें यदि कोई भूल रही हो तो विद्वज्जन क्षमा करें, मैं क्षमाप्रार्थी इस कार्य में सहयोग देने वाले मुख्यतया संघस्था डॉ. प्रमिलाजी और डॉ. चेतनप्रकाशजी पाटनी, जोधपुर को मैं शुभाशीर्वाद देती हूँ कि उनके ज्ञान-ध्यान और धर्माचरण की प्रतिदिन वृद्धि हो और अन्त में समाधिमरण प्राप्त कर वे उत्तम पद को प्राप्त करें। आचार्यवर्य वीरसागर जी की अन्तिम शिष्या आर्यिका सुपार्श्वमती

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