Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 6
________________ आराधनासमुच्चयम् १३ एक लेख में ईस्वी सन् १२०५ है। इससे सिद्ध होता है कि रविचन्द्राचार्य का काल १२ वीं या १३वीं शताब्दी है। आराधना समुच्चय में रविचन्द्र मुनीन्द्र ने पूर्वाचार्यों के अनेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इन उद्धरणों से उनके पाण्डित्य और समय सम्बन्ध का भी अनुमान लगाया जा सकता है। इन्होंने रामसेन द्वारा विरचित तत्त्वानुशासन का निम्नलिखित पद्य 'उक्तञ्च' कहकर उद्धृत किया है। तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु । शुभाशुभमलाभावाद्विशुद्धं शुक्रनमभ्यधुः॥१०४॥ अर्थात् अपूर्वकरणादि स्थानों में जो उदासीन अनासक्तिमय तत्त्वज्ञान होता है वह शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के मल का नाशक होने के कारण शुक्ल ध्यान कहा गया है। यही श्लोक तत्त्वानुशासन में क्र.सं. ३४२ पर है। इससे सिद्ध होता है कि रविचन्द्र रामसेन के बाद में हुए हैं। 'आराधना समुच्चय' का उल्लेख शुभचन्द्र ने स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत व्याख्या में किया है। शुभचन्द्र ने अपनी यह व्याख्या ई. सन् १५५६ में पूर्ण की है। अतएव यह निश्चित है कि रविचन्द्र की ख्याति उस समय तक व्याप्त हो चुकी थी। इसलिए भी उनका समय ई. सन् १५५६ के पूर्व सिद्ध होता है। यदि हम माघचन्द्र की परम्परा का अवलोकन करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि 'आराधना समुच्चय' के रचयिता हलेबीड़ के कन्नड़ लेख में रविचन्द्र है। हलेबीड़ का कन्नड़ में लिखित लेख १२०५ का है। इसी प्रकार १३वीं शताब्दी में होने वाले केलगेरे' के अभिलेख में भी मासोपवासी रविचन्द्र सिद्धान्तदेव का उल्लेख है। अतः इनका समय ई. सन् की १२ वीं शताब्दी का अन्तिम पाद या १३वीं शती का प्रथम पाद संभव है। इस आराधना समुच्चय के अवलोकन से ज्ञात होता है कि उन्होंने बहुत ग्रन्थों का अध्ययन किया था और आचार्यों की परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए पूर्व आचार्यों का अनुकरण किया है। इन्होंने मंगलाचरण में 'आगमसारं आराधनासारं प्रवक्ष्यामः' इस सूत्र में आगम का सार और प्रवक्ष्यामः ये दो शब्द विचारणीय है। "प्रवक्ष्यामः" 'प्र' शब्देन (प्रबंधनेन - आचार्योपदेशपारम्पर्येण आगतं वक्ष्यामः। प्राहुः इति ब्याख्यानार्थत्वात्। तदनेनानादिरयं शास्त्रप्रबन्धः केवल तत्संक्षेपादिविधावेव शास्त्रकाराणामाधिपत्यमिति दर्शयति । न्यायविनिश्चय विवरण।) यह विवरण 'न्यायविनिश्चय' के टीकाकार वादिराज सूरि ने तीसरे श्लोक की व्याख्या में प्राहुः' शब्द का अर्थ करते समय लिखा है कि आचार्य की परम्परा से आये हुए अर्थ को कहना 'प्राहु' कहलाता है (उसी प्रकार परम्परा से आये हुए शास्त्र के कथन की प्रतिज्ञा करना 'प्रवक्ष्याम:' कहा जाता है। इससे यह फलित होता है कि शास्त्रों की यह परम्परा अनादिकालीन है। अर्थ की अपेक्षा ग्रन्थों की रचना के कर्ता सर्वज्ञ देव हैं इसीलिए कहा जाता है कि 'मूलग्रन्थकर्तारः सर्वज्ञ-देवाः') इति । ग्रन्थ : आचार्यदेव ने 'आराधना समुच्चय' यह नाम सार्थक रखा है। "राध और साध्' धातु सिद्धि अर्थ में होते हैं। 'आ' समन्तात् राध्यते साध्यते आत्मन: सिद्धिः यया सा आराधना। जिसके द्वारा आत्मा की सिद्धि की जाती है, शुद्धात्मा की प्राप्ति की जाती है उसको आराधना कहते हैं। आत्मसिद्धि की साधना में जिसकी आराधना की जाती है वह आराध्य है। मुक्ति का अभिलाषी आराधना करने वाला आराधक कहलाता है। स्वर्ग, मोक्ष की प्राप्ति फल कहलाता है। आराधना समुच्चय में इन चारों का वर्णन है। आचार्यदेव ने इनका कथन सुचारु रूप से किया है।

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