Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 14
________________ आराधनासमुच्चयम्-५ जो शिष्यों को अध्यापन कराते हैं, धर्मोपदेश देकर जीवों को सन्मार्ग में लगाते हैं, जो रत्नत्रय से युक्त होते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं। उपाध्याय भत्या जीवों को आत्मकल्याण का मार्ग दिखाते हैं, अत: ये मार्गदर्शक हैं। आचार्य मार्गसंचालक होते हैं। साधु उस मार्ग के अनुयायी हैं। संक्षेप में कथन है - जिस किसी व्यक्ति के रागद्वेष की कुछ कमी हो जाती हैं उसे हम भला आदमी कहते हैं। वह स्वयं गलत कार्यों में नहीं जाता तथा दूसरों के लिए उपयोगी एवं कार्यसाधक ही सिद्ध होता है, बाधक नहीं। यदि किसी व्यक्ति के राग-द्वेष की कमी कुछ अधिक मात्रा में हुई हो तो लोग उसे सज्जन कहते हैं। ऐसा व्यक्ति न्यायपूर्वक आचरण करता है, सत्य बोलता है तथा स्थूल रूप से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप पाँचों पापों का त्यागी होता है, शांत परिणामी होता है, उसे व्रती कहते हैं। इस व्रती मानव के हृदय से अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ ये आठ कषायें शांत हो जाती हैं। अपने अन्तस् में परम सुख का अनुभव करता है, क्योंकि वास्तव में व्रत वही है - बहिरंग में सावधक्रियाओं का त्याग और अंतरंग में आत्मस्वरूप का अनुभव | सागार धर्मामृत में लिखा है कि अंतरंग में रागादि क्षय की तारतम्यता से आत्मानुभव विकसित हो रहा है और बाहर में संकल्पी हिंसा आदि का त्याग है, वही व्रती है। जिस व्यक्ति में रागद्वेष की मात्रा और न्यून हो जाती है अर्थात् अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ ये १२ कषायें शांत होती हैं। इनकी उदयव्युच्छित्ति हो जाती है वे आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। यद्यपि इनमें बाह्य कार्य की उपाधि से भेद दिखता है, परन्तु अंतरंग के कषायों का अभाव तीनों में समान ही रहता है। जब साधक (आचार्य, उपाध्याय, मुनि) के अंतरंग में १२ कषायों का अभाव होता है, तब वह पंच महाव्रत, पंच समिति, पंचेन्द्रियरोध, षड़ावश्यक तथा शेष सात गुणों का पालन करता है और अंतरंग में आत्मस्वभाव में रमण करने का प्रयत्न करता है। अहिंसा महाव्रत - हिंसा दो प्रकार की होती है भाव और द्रव्य | उन दोनों प्रकार की हिंसा का अभाव अहिंसा है। आंशिक रूप से हिंसा का त्याग अणुव्रत और पूर्ण रूप से त्याग महाव्रत है। छह काय के जीवों की विराधना करना द्रव्य हिंसा है और राग द्वेष की उत्पत्ति होना भाव हिंसा है। दिगम्बर साधु अहिंसा महाव्रत का पालन करते हैं क्योंकि बाह्य में त्रस स्थावर की विराधना का त्याग कर द्रव्य अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन करते हैं और रागद्वेष का अभाव होने से वा मंद संज्वलन होने से उनके भाव हिंसा का भी अभाव है। इसी प्रकार झूठ, चोरी, कुशील एवं बाह्याभ्यंतर परिग्रह के त्यागी होते हैं जिससे द्रव्य और भाव रूप दोनों अहिंसा के पालन की पुट लगी रहती है। रागद्वेष के घट जाने से पंचेन्द्रिय विषयों से मन स्वयमेव पराङ्मुख हो जाता है। अत: पाँचों इन्द्रियाँ आत्माधीन १. रागादिक्षय. सागारधर्मामृत

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