Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 12
________________ आराधनासमुच्चयम् ३ सामान्य से मंगल एक प्रकार का है। पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ और सौख्य इत्यादि सर्व मंगल के ही पर्यायवाची शब्द हैं। जो आत्मा को पवित्र करता है वा जिस क्रिया से आत्मा पवित्र होती है उसको पुण्य कहते हैं। वह पुण्य द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। भाव पुण्य के निमित्त से उत्पन्न सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृति रूप पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड द्रव्य पुण्य है। दान, पूजा, षडावश्यक आदि क्रिया रूप जीव के शुभ परिणाम भाव पुण्य हैं। सम्यग्दर्शन, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परिणाम तथा कषाय के निग्रहरूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्य जीव है।' पुण्य से आत्मा पवित्र होती है और मंगल से भी आत्मा पवित्र होती है। अत; पुण्य और मंगल एकार्थवाची हैं। इसी प्रकार पूत, पवित्र, प्रशस्त आदि शब्द भी आत्मा की पवित्रता के सूचक हैं। अतः ये मंगलवाची हैं। यह ज्ञानावरणादि द्रव्यमला और अज्ञान, अदर्श आदि भाव मल को गलाता है, विनष्ट करता है, घातता है, दहन करता है, हनता है, शुद्ध करता है, विध्वंस करता है इसलिए 'मंगल' कहा गया है। इस मंगल के द्वारा मंगल करने वाला अपने कार्य की सिद्धि पर पहुँच जाता है। शास्त्र के अर्थ का निश्चय करता है, शास्त्र के अर्थ को ग्रहण करनेमें समर्थ होता है। अतः आचार्यवर्य शास्त्र वा किसी कार्य का प्रारंभ मंगलाचरण-पूर्वक ही करते हैं। मुख्य एवं गौण के भेद से मंगल दो प्रकार का है। वीतराग प्रभु के गुणों का स्मरण करना मुख्य मंगल है और पीली सरसों, छत्र, श्वेत घोड़ा, कन्या आदि गौण (अमुख्य) मंगल हैं। पंचास्तिकाय की तात्पर्य वृत्ति में लिखा है - आदौ मध्येऽवसाने च मंगलं भाषितं बुधैः । तज्जिनेन्द्रगुणस्तोत्रं, तदविघ्नप्रसिद्धये ।। ज्ञानीजनों ने कार्यगत विघ्नों का निवारण करने के लिए कार्य वा शास्त्र के प्रारंभ, मध्य और अवसान (समाप्ति) में जिनेन्द्र के गुणों का स्तवन करने का कथन किया है। वह मुख्य मंगल कहा जाता द्रव्य और भाव के भेद से मंगल दो प्रकार का है। मंगलवाचक शब्दों को वचन से उच्चारण करना द्रव्य मंगल है और उन मंगलवाचक शब्दों का वा मांगलिक वस्तु का आश्रय लेकर परिणामों की विशुद्धि होती है वह भाव मंगल है। १. मंगलसामान्यात्तदेकविधं - ध. १/१.५.१ ४. पं. का. २. स. सि. ६/३ ३. पं. का. ता. १०८/१७२ ५. मू.आ. १२३४/गो,जी.मू. ६४।

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