Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 7
________________ आराधनासमुच्चयम् १४ आराधना सम्बन्धी यद्यपि आराधना सार, भगवती आराधना आदि अनेक हैं परन्तु इस ग्रन्थ में एक अनूठा ही कथन है। इसके माध्यम से इन्होंने तपाराधना में ध्यान का वर्णन करते समय कर्मों की बन्ध-व्युच्छित्ति सत्ता-ज्युच्छित्ति, उदय-व्युच्छित्ति, उदीरणा-व्युच्छित्ति का बहुत सुन्दर ढंग से कथन किया है। यह ग्रन्थ संस्कृत पद्यों में लिखा गया है। इसमें २५२ पद्य हैं, जिनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप का वर्णन है। गुण और गुणी के भेद से आराध्य दो प्रकार के कहे हैं। गुणी आराध्य का कथन कारते स प्रथकार से पंच परमेष्ठी का कयन किया है। गुण आराधना सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप के भेद से चार प्रकार की कही है। इन चारों प्रकार के गुणों का विस्तार रूप से कथन किया है। इस ग्रन्थ की विशेषता है आराध्य के कथन में गुणगुणी के भेद से दो प्रकार से कथन करना। रविचन्द्र आचार्य ने गुणी जनों का कथन करते समय आचार्य, उपाध्याय और साधुजनों के ३६-२५२८ गुणों का कथन करने के पूर्व देश-कुल और जाति की शुद्धि का कथन करना भी परमावश्यक समझा अत: उसका वर्णन किया है शिष्यानुग्रह-निग्रह-कुशलाः कुलजातिदेशसंशुद्धाः। षट्त्रिंशद्गुणयुक्तास्तात्कालिकविश्वशास्त्रज्ञाः ॥६॥ आचारं पंचविधं भव्यानाचारयन्ति ये नित्यं । शक्स्याचरन्ति च स्वयमाचार्यास्ते मते जैने ।।७।। जैन दर्शन ने देश, कुल और जाति शुद्ध वाले को ही आचार्य, उपाध्याय और साधु बनने का आदेश दिया है। प्रवधनसार में भी कुन्दकुन्दाचार्य ने देश-कुल जाति की शुद्धि का कथन किया है जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने वाले के लिए। अन्य ग्रन्थों में ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना, चारित्राराधना और तपाराधना इस क्रम से आराधनाओं का कथन किया है। परन्तु रविचन्द्राचार्य ने सर्वप्रथम दर्शनाराधना का कथन किया है। सामान्यतः वस्तु स्वरूप को जानकर ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है क्योंकि देशनालब्धि के बिना कभी किसी को भी सम्यग्दर्शन नहीं होता अतः प्राय: सर्व प्रथम ज्ञान आराधना का कथन है। न्याय विनिश्चय में लिखा है, सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है, ऐसी बात नहीं है अपितु सम्यग्ज्ञान और असम्यग्ज्ञान दोनों ही प्रमाण हैं । लौकिक दृष्टि में भी मैंने दीपक से देखा, चक्षु से जाना, धूम से अग्नि को जाना, शब्द (शास्त्र) से जाना आदि लोक-व्यवहार होता ही है। __ सम्यग्दर्शन के पूर्व ज्ञान को प्रमाण उपचार से कहते हैं, “ऐसा भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि “यस्य प्रमितिक्रियां प्रति साधकतमता तस्य प्रामाण्यमिति प्रसिद्धिः" अतः प्रमाणपदाच्चोक्तस्यैवार्थस्थावगमः। तथा शास्त्रान्तरेऽपि - अव्यभिचारादि विशेषण-विशिष्टोपलब्धि जनकस्य बोधस्याबोधस्य वा सामान्येन प्रमाणत्वप्रसिद्धिः।" जो ज्ञान प्रमिति क्रिया के प्रति साधकतम होता है वह प्रमाण होता है, यह प्रसिद्धि है क्योंकि प्रमाण पद से उक्त अर्थ का ज्ञान होता है इसलिए सम्यग्ज्ञान और असम्यग्ज्ञान दोनों को प्रमाण माना है अत: देशनालब्धि प्रमाण से वस्तु को जानकर ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है इसलिए ज्ञानाराधना प्रथम कही है दर्शनाराधना तदनन्तर।

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