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सेठ ने पचास हज़ार दान में दिए, लेकिन फिर मित्र ने कहा कि, ‘यहाँ क्यों दिए? ये तो चोर लोग हैं, पैसे खा जाएँगे !' तब सेठ क्या कहता है, ‘वह तो मेयर के दबाव से दिए, वर्ना मैं तो ऐसा हूँ कि पाँच रुपये भी न दूँ!' यह क्रिया तो उत्तम हुई, सत्कार्य हुआ लेकिन पिछले जन्म के भाव चार्ज किए हुए थे, उसके डिस्चार्ज के रूप में यह फल आया और दान दिया गया, लेकिन आज नया क्या चार्ज किया? जो भावना की कि पाँच रुपये भी दूँ ऐसा नहीं हूँ, वह चार्ज हुआ!
७. कढ़ापो अजंपो
नौकर से कप-प्लेट टूट जाएँ, उस घटना का वर्णन, उसमें नौकर की व्यथा, सेठानी का आवेश, सेठ का अजंपा (बेचैनी, अशांति, घबराहट) या फिर कढ़ापा (कुढ़न, क्लेश) होता है। हर एक की बाह्य और आंतरिक अवस्थाओं का एक्ज़ेक्ट 'जैसा है वैसा' वर्णन 'ज्ञानीपुरुष' करते हैं। नौकर को डाँटना नहीं चाहिए, ऐसा उपदेश असंख्य बार सुना है, लेकिन वह कान तक ही रहता है, हृदय तक पहुँचता ही नहीं । जबकि 'ज्ञानीपुरुष' के वचन हृदय तक पहुँचते हैं और नौकर को कभी भी डाँटें ही नहीं, ऐसी सही समझ उत्पन्न होती है । परिणाम स्वरूप अभी तक नौकर का ही दोष देखनेवाले को खुद की भूल दिखाई देती है, जो कि भगवान का न्याय है!
इसमें नौकर को ही दोषित ठहराकर उसी पर आक्षेप लगाते हैं, डाँटते हैं। तब ज्ञानी क्या कहते हैं कि नौकर सेठ का विरोधी नहीं है । उसमें उसका क्या गुनाह? नौकर बैर बाँधकर जाए, ऐसी अपनी वाणी के स्थान पर सबसे पहले क्या यह जाँच नहीं करनी चाहिए कि, 'वह जला है या नहीं?' ‘भाई, तू जला तो नहीं न?' इतने ही शब्द नौकर के उस समय के डर को कितनी आश्चर्यजनक रूप से रिलीज़ कर देते हैं ! और फिर यदि वह नहीं जला है तो ' भाई, धीरे से चलना ।' ऐसे सहज रूप से टोकना उसमें कितना अधिक परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखता है लेकिन यदि वहाँ कढ़ापा करेगा, तो क्या होगा?
‘जिसका कढ़ापा-अजंपा जाए, वह भगवान कहलाता है।'- दादाश्री
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