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धमकाने से सामनेवाला कभी भी वश में नहीं हो सकता। वह तो खुला अहंकार है। जगत् निअहंकारी के सामने झुकता है!
अपनी बात हर किसी को फिट हो जाए, वह समझदारी कहलाती है। टकराव हुआ, वहाँ पर नासमझी की काई फैल गई है, ऐसा समझना। नासमझी पैदा होने का रूटकॉज़ अहंकार है और अहंकार भूत की तरह रात-दिन परेशान करता रहता है, बाह्य कोई निमित्त नहीं हो फिर भी! इसके बजाय 'मैं कुछ भी नहीं जानता' वह भाव आया तो पूरा हो गया।
अच्छा करवाता है वह भी अहंकार, गलत करवाता है वह भी अहंकार। अच्छा करवानेवाला अहंकार, वह कब पागलपन करके गलत करवाएगा, उसकी क्या गारन्टी?
बुद्धि के अभाववाले से 'ऐसा करूँ या नहीं करूँ' की द्विधा में डिसीज़न नहीं लिया जा सकता, ऐसे संयोगों में क्या करना चाहिए? 'करने' की तरफ का अंदर से ज़ोर अधिक है या नहीं करने' की तरफ का ज़ोर अधिक है, वह देख लेना। यदि नहीं करने' की तरफ का जोर अधिक है तो उस पलड़े में बैठ जाना। फिर 'करने' का होगा तो व्यवस्थित वापस उसे मोड़ेगा।
जल्दबाज़ी करना, वह सिंगल गुनाह है और जल्दबाज़ी नहीं करना, वह डबल गुनाह कहलाता है। इसलिए जल्दी से धीरे चलो।
राग करे, वह सिंगल गुनाह है और निरागी बन जाए, वह डबल गुनाह है। संसार व्यवहार में मैं आत्मा हूँ, मुझे क्या लेना-देना?' ऐसा करके बेटे की फ़ीस नहीं दे तो वह भयंकर गुनाह है। वहाँ नि:स्पृह नहीं होना है। नाटकीय रूप से रहकर निकाल करना है।
सामनेवाले को खुश करना है, उसके रागी नहीं बनना है। पुलिसवाले को खुश करते हुए क्या उसके रागी बनते हैं?
घर में, व्यवसाय में, कहीं भी कम से कम टकराव खड़ा करे, उस प्रकार से व्यवहार करे, वह असल बुद्धिशाली!
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