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है और अंत में चिंता होती है । परंतु वह अंकुर उखाड़ दें तो वृक्ष बनने से रुक जाएगा !
खुद के हिताहित का भान नहीं रहा, इसलिए मन का जैसा - तैसा उपयोग हुआ, और मन आउट ऑफ कंट्रोल हो गया ! इस प्रकार मन की चंचलता बढ़ी, उसमें किसका दोष? जब तक अज्ञान है तब तक मन पर अहंकार का नियंत्रण है, इस वजह से मन पर कंट्रोल नहीं है । आत्माज्ञान होने से ‘खुद का' नियंत्रण आता है और पुरुषार्थ प्रकट होता है और मन वश में हो जाता है।
‘देखना और जानना’, दोनों प्रत्येक पल में साथ हों तो, वहाँ परमानंद के अलावा और क्या हो सकता है? स्वयं सबकुछ जानता ही है कि मन में ऐसा हुआ, वैसा हुआ, वाणी ऐसी बोली गई, वर्तन ऐसा हो गया, परंतु पद्धतिपूर्वक नहीं देखते कि किसे हुआ और हम खुद कौन? और उससे परमानंद का आस्वाद रुक जाता है।
खुद के बोल से ‘किसका किसका, किस प्रकार प्रमाण दुभता है' उसे देखना, वही कहलाता है, वाणी पर उपयोग !
अपनी वाणी सामनेवाले को चोट पहुँचाती है, क्यों? वाणी जो शब्द के रूप में है, वह चोट नहीं पहुँचाती, परंतु उसके पीछे जो अहंकार है उसकी आँच लगती है । 'मैं सच्चा हूँ' वही अहंकार का रक्षण । अहंकार का रक्षण नहीं करना चाहिए, अहंकार खुद ही रक्षण कर ले ऐसा है !
एक भी शब्द का उपयोग मज़ाक उड़ाने के लिए नहीं करना चाहिए। एक भी शब्द का उपयोग गलत स्वार्थ के लिए या लूटने के लिए नहीं करना चाहिए। यदि शब्द का दुरुपयोग नहीं किया हो, मान की चटनी खाने के लिए शब्दप्रयोग नहीं हुए हों, तब वचनबल उत्पन्न होता है।
'इसने मेरा बिगाड़ा' ऐसा थोड़ा सा भी भाव हो, तो उसके साथ पूरा ही दुःख देनेवाला वाणी का व्यवहार उत्पन्न हो जाता है। जिसकी वाणी सुधरी, उसका संसार सुधर गया । इस दुनिया में किसी के पास आपका कुछ भी बिगाड़ने की शक्ति ही नहीं है ।
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