Book Title: Anuvrat Sadachar Aur Shakahar
Author(s): Lokesh Jain
Publisher: Prachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan

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Page 14
________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार त्याग का रास्ता चुना। कठोर तपस्या के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया और सभी को अहिंसा का जिओ और जीने दो का संदेश दिया । 4 आगम कहते हैं कि भौतिक रूप से की गई हिंसा ही मात्र हिंसा नहीं है अपितु जैन धर्म हिंसा की सूक्ष्म व्याख्या करते हुए कहता है कि मन, वचन और काय से भी हिंसा हो सकती है। इसमें न दिखने वाली मन की हिंसा तो बहुत खतरनाक है। वह आत्मा को कलुषित करती है। जब मन की हिंसा वचन के रूप में प्रकट होती है तो क्लेश व झगड़े वैर आदि बढ़ते हैं। लोग वचन हिंसाजनित क्रोध में क्या क्या नहीं कर डालते? और जब यह वचन हिंसा बढ़ते बढ़ते विकराल रूप धारण कर लेती है तो काय अर्थात् भौतिक हिंसा में परिणित हो जाती है। गुरूदेव ने कहा कि हमें सदैव मन की हिंसा से बचना है अपने भावों को सभी के प्रति निर्मल राग-द्वेष से परे बनाना है तभी हम अहिंसा के सच्चे मार्ग पर चल सकेंगे। भाव हिंसा से भव बिगड़ते देर नहीं लगती। समझदार लोग ऐसे निमित्त के उत्पन्न होने पर भी धैर्य व सहनशीलता को अपना कर मन और वचन की हिंसा से बचते हैं जिसके कारण काय हिंसा नहीं होती। यदि हम विवेकपूर्वक व्यवहार के द्वारा जहाँ तक हो सके बिन जरूरी हिंसा को टालते हैं तो सावधानी रखते हुए भी यदि अनजाने में किसी जीव की हिंसा हमसे या हमारे निमित्त से हो जाती है तो उसका पाप नहीं लगता क्योंकि हमारा न तो ऐसा करने का कोई भाव या इरादा था और न ही हमने कोई असावधानी रखी है। दिगम्बर मुनिराज विहार करते समय तथा दैनिक मुनिचर्याओं में इसी तरह की सावधानी रखते हैं । पाप की व्याख्या करते हुए आचार्यश्री ने आरम्भ में ही स्पष्ट किया कि पाप अथवा गलती हो जाना स्वाभाविक है जिसको नहीं दोहराने का संकल्प करने से, अपनो से बड़ों, मुनि आदि के समक्ष स्वीकारते हुए योग्य प्रायश्चित करने से सुधार हो सकता है। किन्तु इसके विपरीत गलतियां छुपाने से और एक के बाद एक बड़ी गलती करते जाने से निश्चय और व्यवहार में पाप व अनीति पनपते हैं जबकि सुधार की मंशा से की गई पाप की स्वीकारोक्ति वैर की जगह मित्रता को जन्म देती है जटिलता की जगह सहजता का वातावरण खड़ा करती है । इसलिए मन के मैल का साफ होना बहुत जरूरी है। कहा भी है- मन के हारे हार, मन के जीते जीत। प्रत्यक्ष हिंसा का त्याग तो जरूरी है ही किन्तु इसके साथ मन की हिंसा का त्याग भाव शुद्धि के लिए अनिवार्य है। उन्होंने आगे कहा कि राष्ट्र की रक्षा के लिए की गई हिंसा हिंसा नहीं मानी जाती इसलिए देश और समाज की रक्षा के लिए हम सभी को आगे आना चाहिए। आज प्रवचन के आरंभ में संघस्थ मुनिश्री सुकमाल सागरजी महाराज ने लोभ की परिणति को स्पष्ट करती बहुचर्चित कथा - टका सेर भाजी, टका

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