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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
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रोक सकती। अच्छा व सकारात्मक सोचने से जीवन की विकटतम समस्याओं का समाधान मिल ही जाता है।
अच्छी सोच अच्छे परिणाम लाए इसके लिए आपकी संगति का उपयुक्त होना जरूरी है। हमारी संगति का प्रभाव हमारी सोच पर, हमारी कार्य प्रणाली पर पड़ता है जो अंतत: हमारे परिणामों को प्रभावित करती है। यदि हम निराश, हताश लोगों की संगति करेंगे तो हमारे मन में न तो अच्छे विचार आ सकते हैं
और न ही हमारे अन्दर अच्छे विचारों की तरफ बढ़ने का होंसला व प्रेरक बल पैदा हो सकता है। बाह्य वस्तुएं अर्थात् निमित्त भी हमारे विचारों को प्रभावित किए बिना नहीं रहते हैं। यदि हम रात्रि भोजन का त्याग न करने वाले के साथ रहेगें तो हमारा व्रत संकल्प एक न एक दिन डगमगाने लगेगा। यदि कोई ब्रह्मचारी स्त्रियों के साथ बातचीत आदि संपर्क को बढ़ाएगा तो उसका संयम ना डोल उठे इसकी गारंटी नहीं रहती। इसलिए आचार्य भगवन् कहते हैं कि ऐसे विपरीत प्रकृति वाले निमित्तों से दूर रहकर अच्छे परिणाम बनाने चाहिए ताकि भाव विशुद्धि से जीवन अच्छा बन सके। निमित्त वातावरण का सृजन करते हैं। यदि हम जीवन में आनंद चाहते हैं तो हमें अपने आसपास के वातावरण में आनंद पैदा करना होगा। मिथ्यात्व से बचना है तो मिथ्यात्व के आयतनों से बचना होगा। हमारे भावों में विकार उत्पन्न करने में जीवन में कषाय भी बहत बड़ा निमित्त बनती है। कषाय वे चोर हैं जो आत्मा के सम्यक्त्व के गुण को चुरा लेती हैं और उसे प्रकट नहीं होने देती। अतः कषाय रूपी कबाड़े को अपने अन्तर्मन से बने उतना पहले से दूर फेंक देना चाहिए।
कारण तथा निमित्त कार्य की प्रकृति व प्रवृत्ति को तय करते हैं। पुरुषार्थ सिद्धिउपाय में कहा गया है कि जैसा कारण होता है, वैसा ही कार्य होता है। मूलतः हम जैसा सोचते हैं वैसा ही व्यवहार हममें प्रकट होने लगता है। सही ढंग से सोचने से बड़े से बड़े काम भी सहज में हो जाते हैं कदाचित् मानवीय कमजोरियों के कारण समय थोड़ा इधर से उधर भले ही हो जाय किन्तु कार्य होकर अवश्य रहता है। हम बार बार एक ही भूल करते हैं कि हमें निमित्त तो समझ में आता है किन्तु भाव अर्थात् सोच अथवा विचार समझ में नहीं आता। इस सोच में अपार शक्ति है जो असंभव को भी संभव बना देती है।
___ दुनियाँ में सदगुरु का संग और सानिध्य का निमित्त ही एक मात्र ऐसा निमित्त है जो सबका भला चाहता है अन्यथा सभी निमित्त अपनी स्वार्थगत मर्यादाओं के कारण अच्छा नहीं सोच पाते हैं। जैसे डॉक्टर कभी नहीं चाहता उसका मरीज हमेशा के लिए ठीक हो जाय अथवा कोई बीमार ही न पड़े, वकील भी नहीं चाहता है कि समाज लड़ाई-झगड़ा रहित बन जाय और नेता भी नहीं चाहते कि समाज में वैमनस्यता की खाई पट जाय क्योंकि इन सभी को अपनी रोटी इसी से सेंकनी है। एकमात्र निस्पृही करूणा के धारी दिगम्बर मुनिराज ही वे सकारात्मक निमित्त व आशीष रूप