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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
से निर्मलता बढ़ती जाती है। जब तक आत्मा में मिथ्यात्व की सत्ता है अर्थात् खोटा श्रद्धान है तब तक सम्यक्त्व की उपलब्धि नहीं हो सकती। पेड़ आदि को ही परमात्मा मान लेना मिथ्यात्व ही है। निश्चय नय से वह एकेन्द्रिय जीव है और उसमें परमात्मा स्वरूप आत्मा भी विद्यमान है किन्तु वर्तमान में वह परमात्मा नहीं है।
पुरुषार्थसिद्धिउपाय में आचार्य भगवन कहते हैं कि यदि हम एक साथ त्याग नहीं कर सकते तो मर्यादा करो, संसार के अमुक हिस्से तक अपनी मर्यादाओं को बांधो। व्रती बनते हो तो बाहर से परिग्रह की मर्यादा करो और अंतरंग में निर्मलता बढ़ाओ। जब भीतर से लोभ छूटता है तब ऐसा संभव होता है। बाहरी जंजाल जितना अधिक रहेगा उतना ही कर्मों के कटने में समय अधिक लगेगा। अनावश्यक को हटाओ ताकि दिमाग उसमें उलझा न रहे। दोनों प्रकार के परिग्रह को छोड़ो तथा मन की सहजता व शांति को प्राप्त हो। साधु भगवन्तों ने दुनियाँ को त्यागा है लेकिन दुनियाँ का कल्याण नहीं त्यागा, इसीलिए सभी के मंगल के लिए उपदेश देते हैं और सदैव सभी के मंगल की कामना करते हैं।
48 मर्यादापूर्ण जीवन ही मस्तीभरा आनंदमय जीवन
परमपूज्य चर्याचक्रवर्ती आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज कहते हैं कि जीवन में व्रत, संयम की मर्यादाएं अनिवार्य हैं। निरंकुश जीवन कभी आनंद का कारण नहीं बन सकता। निरंकुशता व स्वच्छंदता की आंधी में पल भर में सबकुछ उजड़ जाता है। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी उन गृहस्थों के लिए प्रेरणा रूप हैं जो प्रायः यह कहकर मर्यादाओं के पालन से पल्ला झाड़ लेते हैं कि बाहर रहकर हम इन मर्यादाओं का पालन करने में मजबूर हैं। मोदीजी को देखो जो विदेश में रहकर भी अपने व्रत संकल्प का ध्यान रख सकते हैं और उनके पालन में कोई कोताही नहीं बरतते ।
_व्रतों की मर्यादा में एक अलग प्रकार की मस्ती है, एक अल्हड़पन है, बालसुलभ सहजता है। संयम और शील की मस्ती भी कुछ ऐसी ही है जो हमें विकारों से परे रखकर हमारे चरित्र को अंदर और बाहर से उज्जवल बनाती है। इस मस्ती में खोट की कोई जगह नहीं।
___मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन मस्ती भरा था जंगल में भी मर्यादा का दामन था, आनंद से सोया करते थे। भगवान महावीर स्वामी जी ने भी 12 वर्ष के तपस्वी काल में इसी फकीरी भरी मस्ती का आनंद लिया। लक्ष्मण ने भाभी सीता की रक्षा के लिए मर्यादा रेखा खींची थी और हम सभी जानते हैं कि उस रेखा के लांघने पर क्या हुआ? कदाचित् सीताजी