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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
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समाधिमरण जैन दर्शन में श्रेष्ठ है जिसे वीरप्रभु की परंपरा में व्रत के रूप में स्वीकार किया गया तो कुछ आचार्यों ने इसे शिक्षा व्रत में शामिल किया तो कुछ ने अलग से पंडित मरण की तरह अभिव्यक्त किया। आचार्य अमृतचंद्राचार्य कहते हैं कि समाधिमरण 1000 साल से भी पुराना चिन्तन है। यह सल्लेखना समाधि व्रत आत्मा के गुणों को अगले भव में ले जाने वाला है। एक बार के भावपूर्वक समाधिमरण से बार बार का मरण और भव भ्रमण समाप्त हो जाता है।
अरे! इस शरीर का क्या भरोसा? सांस वापस आयी या न आयी। दुनियाँ जन्म दिन मनाकर खुश होती है किन्तु ज्ञानी यही विचार करता है कि इतना वक्त तो चला गया बाकी के समय को तो अब आत्मसाधना में लगा लें फिर कब करेंगे? अंत समय में सल्लेखना समाधिमरण धारण करना ही चाहिए किन्तु हर रोज भी जीवन में ये भावना अवश्य भानी चाहिए कि मेरा मरण समाधिमरण ही हो मैं अपने प्रभु को याद करते हुए, अपनी आत्मा का चिन्तन करते हुए ममत्व व विकारी भावों का त्याग कर इस नश्वर देह को छोडूं और मरते समय मेरे परिणाम न बिगड़े। इस भावना का यह दैनिक पूर्वाभ्यास निश्चित ही आपकी गति सुधार सकता है। ऐसी भावना भाने वाले मुक्ति को प्राप्त होते हैं।
गुरुदेव ने बहुचर्चित विषय समाधिमरण बनाम आत्महत्या पर अपने विचार रखते हुए इस प्रश्न का उत्तर दिया कि क्या समाधिमरण आत्मघात या आत्महत्या है? गुरुदेव आगम सम्मत विधान और तर्क विज्ञान के आधार पर स्पष्ट करते हैं कि इन दोनों की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि कोई भी व्यक्ति भय, राग-द्वेष, हताशा, तनाव, इच्छा, आकांक्षाओं की पूर्ति के अभाव में ही आत्महत्या करता है जबकि समाधिमरण को धारण करने वाला व्यक्ति मृत्यु को निश्चित जान कषाय, विकारों को नष्ट करने के लिए पुरुषार्थ करने हेतु प्रभु चरणों में समर्पित हो जाता है, प्रभुनिष्ठ और आत्मनिष्ठ बन जाता है। होश हवाश में यदि शरीर छूट जाय तो वह है समाधि और होश खोकर, कषाय के वशीभूत होकर शरीर छूटने की क्रिया है आत्महत्या। आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को अपनी अपनी जिम्मेदारी का भी बोध नहीं रहता है फंदा लगा लिया, जहर खा लिया और कलुषित परिणामों के साथ मर गए। गांधीनगर की जनता के सामने जीवंत उदाहरण है सार्थक सागरजी महाराज का जिनके कषायादिक विकार छूट गये थे। उनके स्वभाव की सरलता और मन की शांति व आंतरिक प्रफुल्लता उनके चेहरे से झलकती थी। यह था सल्लेखनायुत समाधिमरण का तेज। श्रीमद्भगवत गीता शरीर छोड़ने की क्रिया को पुराने वस्त्र से अधिक नहीं मानती और योगीजनों से विवेकपूर्वक शरीर का ममत्व हटाने को निर्देशित करती है फिर भी जग मृत्यु से सबसे अधिक भयभीत है।