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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
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आज सन्मति समवशरण में युवा मुनिराज श्री मुदितसागरजी एवं आर्यिका माताजी का केशलोंच प्रवचन के समय चल रहा था। शरीर से ममत्व को हटाते हुए जिस प्रकार मुनि आर्यिका अपने हाथों से केशलोंच कर रहे थे उससे उत्तम त्याग की अनुभूति समस्त वातावरण में हो रही थी। आचार्य भगवन् ने कहा कि साधु बनना तो सरल है किन्तु अपने हाथों से केशलोंच करना कठिन। इसमें विवेकपूर्ण आचरण करने से, भाव विशुद्धि बढ़ाने से सहजता आ जाती है। भावों के आवागमन, पतन-उत्थान एवं उसके परिणामों से जुड़ी अंगारक स्वर्णकार की कथा के माध्यम से आर्यिका सत्रमति माताजी ने भाव परिवर्तन की स्थिति को समझाया। गुरुदेव ने कहा इस कथा में अंगारक को शुभ भावों की प्राप्ति हेतु चारण ऋद्धिधारी मुनि ज्ञान सागरजी के दर्शन, आहार आदि के निमित्त का पुरुषार्थ करना पड़ा किन्तु आहार के पश्चात् घर से कीमती रत्न के चोरी होने जाने पर मुनि के प्रति शंका उत्पन्न करने वाले खराब भावों के लिए कोई परिश्रम नहीं करना पड़ा वे तो स्वतः उत्पन्न हो गए थे। उसके द्वारा ध्यानस्थ मुनि पर फेंका गया डंडा जब पेड़ पर बैठे मोर को लगा और उसके कंठ से निगला हुआ मोती निकलकर जमीन पर आ पड़ा तब उसे अपनी कुत्सितवृत्ति व सोच पर पश्चाताप हुआ और वह उन्हीं मुनि से दीक्षित हो गया ।इस घटनाक्रम में समुचित विवेक के उपयोग की कमी थी।
__ आचार्य अमृतचंद्राचार्यजी कहते हैं कि अणुव्रत धारण करो, गुणव्रतों का पालन करो और व्यर्थ के अनर्थदण्ड अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान तथा दुश्रुति से दूर रहो। राग-द्वेषके वशीभूत होकर खोटा ध्यान मत करो, किसी को ऐसा उपदेश मत दो जिसके परिणाम स्वरूप हिंसा होती हो, प्रमाद व लोभ के वशीभूत होकर अविवेकपूर्ण, मनमाना व्यवहार मत करो अपने आचरण पर अंकुश रखो, हिंसादि उपकरण का दान कदापि न करो अर्थात् जिनके उपयोग से हिंसा आदि की संभावना हो जैसे तलवार, छुरी, विष आदि के दान से दूर रहो। यदि कोई उपकरण सदाचरण और दुराचरण दोनों में ही उपयोग में आता हो तो भी विवेक रखते हुए तय करो कि वह व्यक्ति उसे किस प्रकार उपयोग करने वाला है। उन पदार्थों का भी दान मत करो जिनके निर्माण में हिंसा निहित है। आचार्य भगवन् तो यहाँ तक कहते हैं कि साधु संतों को भी ऐसी सामग्री अथवा उपकरण दान में नहीं देने चाहिए जिनसे उनके परिणाम भटकते हों अथवा उनकी साधना में विघ्न उत्पन्न होता हो। किसी को उपयोग के लिए अपना वाहन आदि देने से पहले सुनिश्चित कर लो कि उसके कार्य का उद्देश्य क्या है? बिना काम के, ऐसे ही अथवा व्यसन, मस्ती आदि के लिए वाहन देने से उसके चलने पर जो हिंसा होती है उसके पाप में आप भी भागीदार बन जाते हैं। अनर्थदण्ड का अंतिम स्वरूप है- दुश्रुति अर्थात् ऐसे साहित्य से, दृश्य-श्राव्य साधन सामग्री से दूरी बनाए रखना अथवा उसका दानदि नहीं करना जिससे मन में विकार पनपते हैं जिनके परिणाम स्वरूप व्यसन आदि पनपते हैं। जुआ, सट्टा आदि प्रवृत्तियां भी त्याज्य हैं क्योंकि इसमें मिलता भले ही छप्पर फाड़ के