________________
अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
121
होता है किन्तु धर्मपिपासु इस नगरी की प्रजा अश्रुपूरित है इस घड़ी में। अच्छा समय कब, कहाँ और कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला। गुरुवर आपका विहार नियति की तरह है जिसे रोका नहीं जा सकता किन्तु हम आपसे लिए गए संकल्पों का पालन करके आपकी उपस्थिति का अहसास अपने पास कर सकें। हे करुणाकर! हमें ऐसी शक्ति प्रदान करें, हमारी प्रज्ञा अक्षुण्ण बनी रहे, खुशी में होश और दुःख में जोश कायम रहे ऐसे मंगल आशीर्वाद की कामना आपसे गांधीनगर की समस्त प्रजा करती है।
59
श्रीमद राजचन्द्रजी की आँखो में झलकती थी
वीतरागता
गांधीनगर सेक्टर-1 से विहार कर प्रातः श्रीमद् राजचंद्र आध्यात्मिक साधना केन्द्र, कोबा पहुँचे आचार्यश्री के संघ का केन्द्र के ट्रस्टियों, पदाधिकारियों, साधकों एवं कार्यकर्ताओं ने भावभीना स्वागत किया। ब्र. सुरेश भईयाजी ने आचार्य भगवान का परिचय देते हुए कहा कि आप वीतरागी, शांत, निर्मल, निर्ग्रन्थ एवं दिगंबर संत है जिनकी संयम तप, त्याग, साधना की अनूठी मिशाल हैं इस पंचम काल में भी चतुर्थ काल जैसी चर्या है, सम्यक् प्रज्ञा व आचरण का अद्भुत संगम है तथा जिनमें मोक्षमार्ग के सभी पहलू एक साथ प्रकट होते हैं।
अपने अध्ययन काल के स्वर्णिम अतीत में झांकते हुए गुरुदेव राष्ट्र गौरव संत आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने श्रीमद् राजचन्द्रजी द्वारा लिखित सर्वार्थसिद्धिउपाय की टीका में उनके व्यक्तित्व व कृत्तित्व का वखान करते हुए कहा कि उनकी तस्वीर में ही उनकी वीतरागता व शांत मुद्रा झलकती है। इस आश्रम में प्रवेश द्वार से लेकर अंदर कई प्रमुख जगहों पर अंकित प्रेरक कल्याणी मंत्र- "मैं आत्मा हूँ, आपका सेवक हूँ, सबका मित्र हूँ" का विशद विश्लेषण करते हए कहा कि यदि हमें अपना उद्धार करना है तो स्व को जानें देह और आत्मा के भेदविज्ञान को समझें तथा श्रीमद् राजचन्द्रजी की तरह आन्तरिक सुदृढ़ता, आत्ममुक्ति के लिए चिन्तन करें। बाह्यचिन्तन हितकारी नहीं होता। पंचपरमेष्ठी ही सद्गुरु हैं उनकी शरण लें। जो साधक पूर्ण स्वतंत्रता की साधना अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की यात्रा पर निकल पड़ा है उसे साधनों की परतंत्रता नहीं सुहाती, इसीलिए दिगंबर मुनि सभी बाह्याडम्बरों से मुक्त होते हैं। श्रीमदजी गांधीजी के भी आध्यात्मिक गुरु थे। गांधीजी के जीवन से उनके असहयोग आंदालोन से शिक्षा ली जा सकती है कि शारीरिक अर्थात् पंचेन्द्रियों के विषय तथा मन के विकारों के साथ असहयोग करना सीख जाएं तो स्व स्वरूप के