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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
तक वहीं पर गुरु चरणों में रहे। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि गांधीनगर की जनता को श्री सार्थक सागरजी महाराज के जीवन से सीख लेनी चाहिए और अपने जीवन को इस तरह अर्थपूर्ण तथा सफल बनाना चाहिए। समाधिमरण भगवान महावीर स्वामीजी का बताया हुआ वह मार्ग है जो मरण को भी उत्सव बना देता है।
संघस्थ मुनि श्री सार्थक सागरजी के 83 दिवस की कठोर सल्लेखना- साधना के पश्चात् 27 अक्टूबर को समाधिमरण पूर्वक इस नश्वर शरीर त्याग करने के पावन प्रसंग पर परम उपकारी आचार्य गुरुवर श्री सुनीलसागरजी महाराज ने अपने ओजपूर्ण उद्बोधन में कहा कि वे मनुष्य सौभाग्यशाली है जिन्हें मनुष्य जन्म मिला, अणुव्रती एवं महाव्रती बनने का सौभाग्य मिला तथा उनका जीवन तो स्वर्ण कलश से महिमामंडित और आरोहित ही हो गया जिन्हें जीवन में समाधिमरण का अवसर मिला। नाथूजी जो दीक्षा के पश्चात् सार्थक सागर बने उन्हें गृहस्थावस्था में विषेले कीड़े ने काट लिया था, जहर फैलते जाने से हीरानन्दानी जैसे मुंबई के बड़े होस्पीटल ने हाथ पैर कटने का ऑपरेशन करने पर भी जीवन की संभावना व्यक्त नहीं की। तब इस श्रेष्ठी ने अर्धबेहोशी की हालत में आई. सी. यू. में भर्ती होने की बजाय संकेत के द्वारा अपने परिवारीजनों से गुरुचरणों में रहकर अपने शेष जीवन को समर्पित करने की इच्छा जतायी ताकि भव सुधर सके। सभी ओर से निराश परिवार आखिर उन्हें उनकी इच्छा के अनुरूप 6 अगस्त को गांधीनगर में गुरुचरणों में लाया गया। गुरुदेव ने उन्हें क्षुल्लक दीक्षा दी व्रत अंगीकार कराए और उन्होंने उसी दिन से सल्लेखना घारण की। चमत्कार ही था कि बिना कुछ खाए वे 32वें उपवास के दिन प्रवचन सभा में आकर बोले कि उन्होंने अपने जीवन काल में कभी निराहार नहीं रहे और आज गुरु सानिध्य में रहकर अपूर्व शांति का अनुभव कर रहे हैं। सतत अपनी भाव विशुद्धि बढ़ाते हुए, विकारों का पूर्ण शमन कर, सांसारिक वस्तुओं और शरीर से ममत्व को घटाकर आचार्य भगवन् और मुनिजनों के सानिध्य में आत्मबोध को प्राप्त किया और सल्लेखना समाधिके द्वारा पूरे होशोवास में आत्म चिन्तन करते हुए मृत्यु से भयभीत हुए बिना इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया। गुरुदेव ने कहा समाज के लिए इनके जीवन का अंत को सुधार लेने का आदर्श अनुकरणीय है। इस दौरान उनका पुत्र व पुत्री उनकी एवं मुनिसंघ की वैयावृत्ति में अंत तक रहे श्रद्धा भाव से सेवा तथा धर्म साधना में मदद की। पारस और भरत उनके दो बेटे इस पावन पुनीत कार्य में तन मन धन से पूर्ण समर्पण के साथ भक्तिभाव से संलग्न रहे और सही मायनों में पितृऋण को अदा कर सके। गुरुदेव ने कहा कि बेटा हो तो ऐसा जो अपने पिता को अस्पताल में सड़ने के लिए छोड़ने की बजाय उत्तम समाधि मरण करवाता है और पूरी भावना के साथ इस दिशा में स्वयं को समर्पित कर देता है।