Book Title: Anuvrat Sadachar Aur Shakahar
Author(s): Lokesh Jain
Publisher: Prachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan

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Page 120
________________ 110 अणुव्रत सदाचार और शाकाहार संगोष्ठी के मुख्य अतिथि श्री सुरेन्द्र पोखरनाजी ने डार्विन के विकासवाद सिद्धांत की आलोचना की और भगवान महावीर के अहिंसात्मक पथ को ही जीवन का मार्ग बताया और कहा इस संसार में सभी प्राणी सुख चाहते हैं, जीवन चाहते हैं जो वीतरागी प्रभु द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलकर प्राप्त हो सकता है। बस स्थावर हरेक के अन्दर समान चेतना अथवा आत्म स्वरूप है, विज्ञान भी आज इसे स्वीकार करने को विवश है। पर्यावरण असतुंलन इस तथ्य के अनुरूप जीवनशैली के न होने के कारण ही है। यदि सभी मर्यादाओं को जीवन में अपनाकर सहअस्तित्व की अवधारणा पर अमल करते हैं तो जीवन अर्थात् विकास के वास्तविक स्वरूप को हासिल किया जा सकता है। सारस्वत अतिथि प्रो. पारसमलजी जैन अग्रवाल जो भौतिक विज्ञानी हैं किन्तु प्राकृत साहित्य के भी विद्वान हैं, ने कहा कि प्राकृत सिद्धांतो का मानव जीवन पर अत्यन्त उपकार है। समयसार आदि की गाथाओं में समय प्रबंधन का जो सटीक विश्लेषण मिलता है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। प्राकृत भाषा के विद्वान प्रो. प्रेम सुमन जैन ने जोर देते हुए कहा कि इस भाषा के माध्यम से ज्ञान के मूल स्वरुप तक पहुँचना एवं इसे जन जन की भाषा बनाना वर्तमान की महती आवश्यकता है। संगोष्ठी संयोजक प्रो जिनेन्द्र जैन, उदयपुर, प्रो. धर्मचन्द्र जैन, जोधपुर, प्रो. कल्पना जैन, दिल्ली, डॉ कमल जैन, पूना, डॉ आशीष जैन, गढ़ाकोटा, डॉ. मनीषा जैन, लाडनूं के साथ करीब 50 विद्वानों ने विविध विषयों पर अपने विचार व्यक्त किये। गुरुदेव आचार्य सुनीलसागरजी कहते हैं कि भाषकीय द्वेष और विवाद व्यर्थ है हमें हर भाषा का सम्मान करना ही चाहिए। ज्ञान किसी भी भाषा-लिपि से लिया जा सकता है। आदि जिनेश्वर द्वारा प्रतिपादित ब्राह्मी और शारदा लिपि अत्यन्त प्रचीन तथा व्याकरण की दृष्टि से अति उन्नत है जिन्हें सीखने हेतु सुबुद्ध श्रावकों को आगे आना चाहिए। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि भाषा किस लिपि में लिखी गई है अपितु उसका तत्त्व अधिक महत्वपूर्ण है जो जीवन को सुधारता है। संस्कृत मीठी भाषा है तो प्राकृत मधुर। वे छिछले लोग ही हैं जो भाषा की राजनीति करते हैं। एक उदाहरण देकर गुरुदेव ने कहा कि किसी टंकी के निकलने वाला पानी टंकी से नहीं आता अपित उसके स्रोत टेंक से आता है। यदि हम टकी की जगह बदलकर अन्यत्र पानी निकल आने की अपेक्षा करेंगे तो वह व्यर्थ का पुरुषार्थ होगा क्योंकि न तो पानी पाइप से आता है और न ही टंकी से। इसी क्रम में हमें किसी विवाद में पड़े बिना तत्त्व के मूल स्वरूप को समझना होगा और उसके लिए मूल भाषा को सीखने समझने की जरूरत होगी ताकि भ्रमपूर्ण स्थितियां न बनें।

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