Book Title: Anuvrat Sadachar Aur Shakahar
Author(s): Lokesh Jain
Publisher: Prachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan

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Page 122
________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार करता ।, किसी को मिथ्या उपदेश नहीं देता, किसी को रास्ता नहीं भटकता, दूसरों की गूढ़ अर्थात् रहस्यमय बातों को उजागर नहीं करता, कूटलेख क्रिया अर्थात् झूठी लिखापढ़ी नहीं करता, न्यासापहार में चूक नहीं करता अर्थात् यदि किसी ने कोई धन रखा है तो उसको अन्यान्य कारणों से, सामने वाले को याद न रहने से छिपाता नहीं है । आज हमारी मानसिकता इतनी विकृत हो गई है कि शाकभाजी अथवा पानीपूड़ी बेचने वाले जैसे छोटे व्यक्ति को भी मौका पड़ने पर छलने से नहीं चूकते और कुतर्क करते हैं कि हमने थोड़े ही उससे अधिक मांगा अपितु वह भूला तो हमने रख लिया। साकारमंत्रभेद सत्याणुव्रत का आखिरी अतिचार है कि अनायास किसी की पोल खोल देना ताकि वह बर्बाद हो जाए उसे नीचा देखना पड़े । 112 अहिंसाणुव्रत मानवता का पाठ पढ़ाता है, दया और करुणा का मार्ग सुझाता है। एक गृहस्थ के जीवन में बुनियादी जरूरतों के पूरा करते समय आरम्भी हिंसा हो सकती है, व्यापार आदि में उद्योगी हिंसा हो सकती है, सुरक्षा आदि की दृष्टि से विरोधी हिंसा भी हो सकती है किन्तु उसे ऐसी संकल्पी हिंसा से बचना होगा जिसमें उसका कोई हित निहित नहीं है । अहिंसाव्रत के अतिचारों में पशुओं पर, अपने मातहतों पर यहाँ तक कि आपके अपनों पर उनकी क्षमता से अधिक भार डाल देना, टेंशन देना, अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए पशुओं का छेदन - भेदन करना, ताड़न के लिए अन्न-पानी का निरोध कर देना आदि अहिंसाणुव्रत के अतिचार हैं। आचार्य भगवन् कहते हैं आदमी शैतान अथवा राक्षस भी होता है जिसके मन में तनिक भी दया भाव नहीं है जो न दया का भाव समझता है और न ही किसी पर दया करता है। दूसरी श्रेणी में वे आदमी आते हैं जो जानवर की तरह हैं जो दया को समझते तो हैं किन्तु लोभ व स्वार्थ के वशीभूत उस पर अमल नहीं कर पाते। जबकि तीसरा आदमी संवेदना सहित होता है जिसमें दयाभाव की समझ होती है, वह सामने वाले में स्वयं के समान जीव समझता है तथा उसी करुणा के साथ विनय से, मानवीयता से उसकी रक्षा के यथोचित पुरुषार्थ के लिए तैयार रहता है T अचौर्याणुव्रत के 5 अतिचार हैं- प्रतिरूपक व्यवहार अर्थात् मिलावटी माल मिलाकर देना, स्तेन प्रयोग अर्थात् स्वयं तो चोरी नहीं करना किन्तु दूसरों को चोरी के तरीके बताना, राज्यविरोधातिक्रम- जिस व्यापार पर राज्य ने प्रतिबंध लगाया है, ऐसा व्यापार करना, तदाहृता आदान- अर्थात् चोरी का माल खरीदना तथा हीनाधिक मानोन्मान - कम- अधिक माप-तौल करना । इस तरह से कमाया हुआ धना चोरी का धन है । आजकल लोग इन अतिचारों के द्वारा इतना पापाचार करते हैं कि रस में विष मिलाते हैं, दूध में भी जहरीले रसायन मिलाते हैं, लोग मरते हों तो मरे लेकिन उनको क्या? यहाँ तक कि घी आदि शाकाहारी पदार्थों में चर्बी आदि मिलाकर धर्मभ्रष्ट होते हैं।

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