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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
को घटाता है इसलिए वीतरागी के सिवाय अन्य किसी में श्रद्धान नहीं करना चाहिए। दोष न लगे इसके लिए हमें अपनी संगति पर ध्यान देना होगा ।
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जो आसक्ति है, वही परिग्रह है
परमपूज्य आचार्य भगवन् श्री सुनीलसागरजी महाराज ने आज श्रावकों के कल्याण हेतु परिग्रह के प्रति आसक्ति के भेदविज्ञान का उपदेश देते हुए इस दलदल से निकलने का सरल, सहज रास्ता दिखाते हुए कहा कि भगवान महावीर स्वामी की देशना में धर्म को दो रूपों में स्वीकार किया गया है- एक है श्रमण मार्ग तथा दूसरा है श्रावक मार्ग । जो श्रमण मार्ग को स्वीकार करते हैं वे महाव्रतों को धारण करते हुए, शुद्धात्म से उसका आचरण करते हुए आत्म विशुद्धि के द्वारा मोक्ष मार्ग की ओर निरंतर बढ़ते जाते हैं, वे वीतरागी मुनि साधक हैं। दूसरा जो श्रावक मार्ग है उसमें एक श्रावक अणुव्रतों का पालन करते हुए श्रमण द्वारा बताए गए आत्मकल्याणकारी मार्ग की भावना भाता है कि किसी दिन उसके जीवन में भी ऐसा सुअवसर आ जाए।
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आचार्य गुरुवर कहते हैं कि सौभाग्यशाली हैं वे लोग, जो अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत तथा अपरिग्रहाणुव्रत का पालन करते हैं। वे भेदविज्ञानी होने से सम्यक् ज्ञानी भी हैं और सदाचारी भी हैं । हे भव्य जीवो! थोड़ा सा चारित्र पालन भी भव पार कराने वाला होता है। जैन आगम के एक महान ग्रंथ नियमसार में कहा है कि द्रव्य के अनुसार भाव होना चाहिए और भाव के अनुसार द्रव्य होना चाहिए। यदि आत्मा के भीतर वीरागता, निर्मलता नहीं बढ़ी तो सब निरर्थक है। यदि भीतर वीरागता है तो वह बाह्य में भी प्रकट होती ही है । परिग्रह से लगाव कम हुआ तो बाहर में संग्रहवृत्ति कम ही दिखती है ।
परमपूज्य अमृतचंद्राचार्यजी कहते हैं कि जो मूर्छाति है, वही परिग्रह है। मोह के उदय से मूर्च्छा आती है। प्रश्न ये नहीं है कि किसी के परिग्रह है अथवा नहीं। परिग्रह न होने पर भी कोई व्यक्ति आसक्ति के चलते परिग्रही हो सकता है और परिग्रह होते हुए भी अनासक्ति के कारण अपरिग्रही भी हो सकता
। मान लीजिए कि कोई भिखारी निर्धन हैं और उसके पास परिधान पहनने के लिए पूर्ण वस्त्र भी नहीं है फिर भी वह अपेक्षा एवं आसक्ति की दृष्टि से परिग्रही हो सकता है। यही आसक्ति ही तो मूर्च्छा है जो भाव विशुद्धि में, आत्म शुद्धि की राह में बाधक बनती है। भरत चक्रवर्ती के पास 6 खंड का राज्य था किन्तु उन्हें परिग्रह के प्रति जरा सी भी आसक्ति नहीं थी इसलिए वे घर में रहकर भी वैरागी कहे जाते थे। आचार्य भगवन् कहते हैं कि एक साधु भी परिग्रही है यदि उसके अन्दर क्रोधादि कषाय विद्यमान रहती है।