Book Title: Anuvrat Sadachar Aur Shakahar
Author(s): Lokesh Jain
Publisher: Prachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan

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Page 107
________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार 97 से हमारे जीवन में इसकी कुछ विशिष्टताएं आ जाएं ताकि हम अपनी नजरों में ऊपर उठ सकें। कार्तिक श्याम अमावस की तिथि अर्थात् भगवान महावीर स्वामी का मोक्ष कल्याण निर्वाण महोत्सव। जिसके प्रतीक रूप में मन को मुदित करने वाला मोदक चढ़ाते हैं तथा वीर प्रभु के समान कर्मवाण रहित निर्वाण की कामना करते हैं। परम उपकारी गुरुदेव कहते हैं कि दीपावली पर हम दीप तो जलाते हैं जो स्वयं को जलाकर जग को प्रकाशित करता है। जबकि आदमी ईर्ष्या की दाह में जलकर हमेशा दूसरों को नुकसान पहुंचाता है। बंधुओ! अमावस की रात तो महीने में एक बार अथवा वर्ष में 12 बार आती है जबकि समाज में गरीबी, भूख, असमानता की स्याह अमावस कब से छाई हुई है इसे दया, करुणा, अहिंसा का दीप जलाकर, मन में संवेदना का दीप जलाकर मिटाने की नितान्त आवश्यकता है। करुणाधारी गुरुदेव कहते हैं कि प्रकाश दो प्रकार का है- भाव प्रकाश और द्रव्य प्रकाश। द्रव्य प्रकाश हमें सूर्य, चन्द्र, तारे बिजली आदि से प्राप्त होता है जिसकी एक मर्यादा है लेकिन भाव प्रकाश अंतरंग का प्रकाश है जो भेदविज्ञान से प्रकट होता है, शाश्वत होता है। यदि आँख न हो चल सकता है किन्तु यदि ज्ञान का प्रकाश जीवन में न हो तो आँखे होते हुए भी घोर अंधकार ही है। आज के दिन गौतम गणधर ने केवलज्ञान रूपी दीपक को प्रकट किया था हम भी अपने जीवन में शुद्धात्म के पुरुषार्थ से ऐसा दीप अपने तथा अपनों के जीवन में जलाए मन से वैर भाव को मिटाए और सभी को गले लगाएं। गुरुदेव कहते हैं कि आत्मार्थिओ! जीवन को सदगुरु के चरणों में समर्पित कर दो। याद रखो जब बीज समर्पित होता है तो वृक्ष बन जाता है। माटी समर्पित होती है तो दीप बनती है।। बूंद समर्पित होती है तो सागर बनती है। शिष्य समर्पित होता है तो वह दिंगबर संत बनता है।। सन्मति समवशरण में आ चुके सभी महानुभावों ने दिगंबरत्व की कठिन साधना का लोहा माना है उससे प्रभावित होकर उन्होंने अपने जीवन को त्याग के पथ पर उन्मुख किया है। दिगंबर साधु भेद विज्ञानी, 5 महाव्रत, 5 समितियों का पालक, पंचेन्द्रियों के निरोधक 28 मूलगुणधारी होते हैं। आचार्य कुंदकुंद स्वामी कहते हैं कदाचित् एकाध के शिथिल आचरण के चलते इसकी महत्ता को कम नहीं आंका जा सकता ठीक उसी प्रकार जैसे समुद्र में एकाध मछली के सड़ने से सम्पूर्ण सागर का पानी सड़ नहीं जाता। मुनिराज कड़कड़ाती ठंडी में भेदविज्ञान का कंबल ओढ़कर 22 परीषहों को समता से सहन करते हैं। गुरुदेव तपस्वी सम्राट सन्मतिसागरजी महाराज के प्रेरणात्मक प्रसंग के जरिए कहा कि हम अपने

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