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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
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चित्त पर नियंत्रण सर्व कल्याणकारी है
हिंसा और अहिंसा के तत्त्व दर्शन को एक अलग नजरिए से देखने व विश्लेषित करके सरल रूप में रखते हुए आज प्रातःकालीन बेला में चारित्र चक्रवर्ती गुरुदेव 108 आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने अपने जन-कल्याणकारी संबोधन में कहा कि सुखी जीवन के लिए चित्त शुद्धि व चित्त की स्थिरता बहुत जरूरी है। चित्त का उलझना व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से हिंसा की पर्याय है, यह अच्छी नहीं है क्योंकि इससे ईष्या, जलन, द्वेष पैदा होते हैं जिनसे मन आकुल व्याकुल हो उठता है कि अमुक के पास इतना क्यों हैं, मेरे पास क्यों नहीं है? अथवा अमुक का बुरा हो जाय आदि नाना प्रकार की चित्त की उलझन ही हिंसा तथा घोर पाप का कारण है। एक बहुत ही प्रचलित कहावत है कि
फूंक मारकर दिए को बुझाया जा सकता है
किन्तु अगरबत्ती को नहीं। दिया जलता है इसलिए वह बुझ जाता है जबकि अगरबत्ती अपनी धीमी सुगन्ध से समस्त वातावरण को महकाती रहती है। आचार्यश्री कहते हैं कि यहाँ जलने का अर्थ कुछ अलग अर्थात् जलन से लिया जाता है। यह जलन ईष्या, राग-द्वेष रूपी वह दाह है जिसमें से उठता धुंआ हिंसा का आभास करा देता है, जलन के कारण इंसान का चेहरा बिगड़ जाता है और उसकी इंसानियत नष्ट हो जाती है, क्रोधादि कषायों में जलकर उसकी आन्तरिक व बाह्य शांति समाप्त हो जाती है। यदि साथ बैठे प्रतिष्ठित व विद्वान लोगों में से अमुक को सम्मान मिल गया और कुछ रह गए तो इस जलन के फलस्वरूप उत्पन्न दाह भले ही ऊपर प्रकट न हो किन्तु अन्दर ही अन्दर वह इसकी दुखद अनुभूति से त्रस्त हो उठता है।
घर परिवार में सास-बहू, पति-पत्नी जैसे नजदीकी रिश्तों में कलह व खटास पारस्परिक समझ की कमी इसी ईर्ष्या व द्वेष के कारण पैदा होती है। ग्रहस्थ और श्रावक की तो बात छोड़ो, यदि साधु संत समुदाय में भी ईष्या जन्म ले ले तो साधुओ की भी तपश्चर्या व साधना दूभर हो जाती है, शांति छिन्न-भिन्न हो जाती है। किन्तु ज्ञानीजन स्थितिप्रज्ञ रहते हुए इस तरह की हिंसा से बच निकलते हैं और अपने परिणामों को शांत बनाए रखने में कामयाब रहते हैं।
आचार्यश्री ने आगम की एक कथा का उल्लेख करते हुए समझाया कि यह ईष्या, जलन इतनी खतरनाक होती है कि पहले से स्थापित रिश्तों की मर्यादा और मानवीयता की तमाम हदों को पार कर जाती है।