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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
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___ कृपालु आचार्य भगवन् कहते हैं कि दुनियाँ के समस्त भोगों को भोगने का सामर्थ्य किसी भी व्यक्ति में नहीं है फिर उसे भोगने की लालसा
और आकांक्षा क्यों रखते हैं? अतिरेक निर्धारण एवं त्याग के भाव क्यों नहीं बनाते? क्यों नहीं उनसे आसक्ति घटाते? अरे भाई! अपनी जरूरत से ज्यादा उपभोग करोगे तो डॉक्टर के पास जाना पड़ेगा। विरताविरत अर्थात् देशव्रती श्रावक त्रस हिंसा से तो विरक्त होता है किन्तु वह एकेन्द्रिय स्थावर की हिंसा से बच नहीं पाता। घर, व्यापार के व्यवहार में स्थावर हिंसा होती ही है किंतु उसमें विवेक रखते हुए अनंतकायिक जीवराशि की विराधना से बचा सकता है। इसके लिए उसे कंदमूल का त्याग करना होगा, उसमें आसक्ति घटानी होगी, विदेशी व डिब्बे बंद वस्तुओं का उपयोग बंद करना होगा क्योंकि ये अभक्ष्य हैं। मक्खन (नवनीत), चीज आदि मर्यादा रहित वस्तुएं हैं इसलिए ये भी सर्वथा त्यागने योग्य हैं क्योंकि इसमें नियत समय के पश्चात् अनंत जीवराशि पैदा हो जाती है। हमें खानपान की मर्यादा को समझकर परिग्रह परिमाण करके अभक्ष्य वस्तुओं के त्याग के साथ साथ सेवनीय वस्तुओं के प्रति अनासक्ति का संयम पालना होगा। आचार्य गुरुदेव सन्मतिसागरजी ने 40 साल तक अन्न ग्रहण नहीं किया, सभी रसों का त्याग कर दिया फिर भी अभीष्ट साधना की।
गांधीजी अपने जीवन में मर्यादित रूप से वस्तुओं के उपयोग को स्वीकार करते थे। वे मानते थे कि दुनियाँ में जितने साधन-संसाधन उपलब्ध हैं वे मेरे अकेले के लिए नहीं अपितु सभी के लिए हैं। यदि सभी लोग अपनी जरूरतों को सीमित करते हुए इस परोपकारी भावना के साथ साधनों का उपयोग करेंगे तो किसी के लिए भी साधनों की कमी नहीं रहेगी। वह अक्सर कहा करते थे कि प्रकृति के पास सभी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है किन्तु किसी एक के लालच के लिए नहीं। देशव्रती श्रावक मर्यादा के पालन के द्वारा अपने संतोष में वृद्धि करता हुआ अपने जीवन को समुन्नत बना लेता है तथा दूसरों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होता है। इस तरह से वह प्रकृति के श्रोतों- वृक्ष, नदी आदि के प्रति सही मायनों में अपना धन्यवाद अर्पित कर सकता है। मर्यादा के साथ जीवन यापन करने से आध्यात्मिक पथ पर चलने की संकल्प शक्ति में वृद्धि होती है और पाप प्रवृत्तियों से बचाव होता है। ऐसा साधक जैन धर्म में वर्णित भोगोपभोग शिक्षाव्रत के पालन में संयममय आचरण एवं भेदविज्ञान करके तथा देव-शास्त्र-गुरु के प्रति श्रद्धान दृढ़ करते हुए साधना के पथ पर निर्मल परिणामों के साथ आगे बढ़ता चला जाता है। संघस्थ वयोवृद्ध मुनिश्री सुकमाल सागरजी ने देशी रूपक के माध्यम से दुनियाँदारी और उसके जंजाल को समझाया। एक पिता अपनी पुत्री के लिए सर्वगुण सम्पन्न वर की खोज में निकला। अंततः उसे एक पात्र मिलता है, जिसका पिता कहता है कि मेरे पुत्र में 98 गुण तो हैं किन्तु मात्र 2 गुण नहीं है। उसने पूँछा कौन से? लड़के का पिता बोला कि एक तो वह कुछ जानता