Book Title: Anuvrat Sadachar Aur Shakahar
Author(s): Lokesh Jain
Publisher: Prachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan

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Page 91
________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार यह मिथ्योपदेश है और पाप का कारण है । उदाहरण के लिए किसी को नफा-नुकसान व दुनियाँदारी का गणित समझाते हुए हिंसादि प्रवृत्तियों वाले जैसे मछली पालन, मुर्गी पालन, शराबखाने आदि की दुकान खोलने की राय देना आदि । बंधुओ ! इसमें अकारण ही हिंसादि पापों का बंध होता है । 81 प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ प्रभु ने इस दुनियाँ का व्यापार चलाने के लिए 6 आवश्यक बताए थे - असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य । इन सभी उद्यमों में असि का मतलब तलवार अर्थात् सुरक्षा आदि की जिम्मेदारी से सृजित आजीविका, मसि अर्थात् लेखन कार्य, कृषि अर्थात् अन्न उत्पादन का मेहनतपूर्ण कार्य करके आजीविकोपार्जन जिसमें स्वतंत्रता व सम्मान दोनों हैं, विद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या ज्ञान के आदान प्रदान का माध्यम बनना, शिल्प अर्थात् हुनर, कारीगरी के विकास से आजीविका कमाना तथा वाणिज्य अर्थात् नीतिमत्ता पूर्ण व्यापारिक व्यवहारों से सृजित आजीविका का उपदेश हम सभी के कल्याणार्थ दिया। हमारी प्राचीन संस्कृति में कहावत प्रचलित है— उत्तम खेती, मध्यम वान, जघन्य चाकरी निश्चय जान । इसके अनुसार खेती ही मेहनतकश काम है किन्तु इसे श्रेष्ठ माना गया है। उत्तरभारत और पश्चिम में जैन लोग भले ही शाहूकारी करते हों किन्तु दक्षिण में आज भी बहुतेरे किसान जैन है जो नीति के साथ अहिंसक रूप से खेती आदि करते हैं । रासायनिक दवाओं के उपयोग से होने वाली हिंसा से दूर रहते हैं। आचार्य भगवन् कहते हैं कि हम व्यापार भी ऐसा करें जिसमें हिंसा कम से कम हो। मान लीजिए हम लोकोपयोगी अनाज का व्यापार करते हैं तो ज्ञात रहना चाहिए कि उसके संग्रह आदि में अनावश्यक हिंसा तो नहीं हो रही। व्यापार को कृषि के बाद दूसरे क्रम पर रखा गया है वशर्ते उसमें अनावश्यक हिंसा न हो और जीवदया का पूरा विवेक हो । नौकरी जो आज प्रथम क्रम पर है उसे जघन्य माना गया है क्योंकि इसमें स्वतंत्रता का हनन होता है, उद्यमिता का ह्रास होता है, नव प्रवर्तन हतोत्साहित होता है। पापरूप विचारों के फलस्वरूप ही मन में हिंसादि व्यापार का उपदेश मिथ्योपदेश है, ठगी आदि का विचार आना, मानव अंग और लड़कियों का भी व्यापार आज सफेदपोशी का चोला ओढ़कर धड़ल्ले से किया जाता है जो पूर्णरूप से पापाचार है, अनैतिक है । नवरात्रि में हम श्रद्धा से दुर्गा पूजा तो करते हैं किन्तु अपनी ही बेटियों को गर्भ में ही मार गिराने में जरा भी नहीं हिचकिचाते हैं। सच्ची दुर्गा पूजा तभी हो सकती है जब हम कन्याओं के प्रति आत्मीयता रखते हए गर्भपात जैसी हिंसक, नीच व अमानवीय प्रवृत्ति पर कठोर नियंत्रण रखें। कई लोग अपने स्वार्थ की खातिर शादी की दलाली का व्यापार भी करते हैं । मात्र

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