Book Title: Anuvrat Sadachar Aur Shakahar
Author(s): Lokesh Jain
Publisher: Prachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan

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Page 82
________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार रहे तथा दुनियाँ को अपने उजाले से रोशन करते रहे एवं अंत में पुरुषार्थ के द्वारा केवलज्ञानरूपी उजाले के साथ मोक्ष लक्ष्मी का वरण कर गए। 35 मानवजन्म रूपी पारसमणि को पाकर सम्यक् पुरुषार्थ के द्वारा थोड़े ही भवों में होवें भव पार ___ मैं कौन हूँ, आया कहाँ से, और मेरा रूप क्या? संबंध दुखमय कौन है, स्वीकृत करन परिहार क्या? उसका विचार विवेक पूर्वक, शांत चित्त से कीजिए। तो सर्व आत्मिक सौख्य के, आनंद का रस लीजिए। परमपूज्य गुरुवर चतुर्थ पट्टाचार्य आचार्य श्री सुनीलसागरजी महाराज ने भव पार करने वाली, मानव जन्मरूपी पारस देह से सम्यक पुरुषार्थ कर जीवन को सफल बनाने वाली कुंजी सुज्ञ श्रावकगणों को देते हुए संबोधित किया कि हमें सतत जागृत रहते हुए स्व का, निज आत्मस्वरूप का चिंतन-मनन तथा तदनरूप आचरण करना चाहिए। तभी जीवन की सार्थकता है। आत्मार्थी सज्जनो! पद्मनंदी पंचविंशतिका में पंडित आशाधरजी ने उल्लेख किया है कि प्रत्येक परमात्मा जीव को यह विचार निरंतर करना चाहिए कि मैं कौन हूँ? कहां से आया? मेरा सच्चा स्वरूप क्या? कौन से संबंध स्वीकारने योग्य तथा कौन से संबंध त्यागने योग्य हैं? कौन से संबंध हैं जो दुख के कारक हैं? बंधुओ! इसका विचार कर ज्ञानी जीव आत्मिक तत्त्व के सुख का आनंद लेता है। समयसार कलश में पूर्वाचार्य श्री अमृतचंद्राचार्य कहते हैं कि हे ज्ञानी? कैसे भी कर, एक बार तत्त्व के कोतुहली बन जा, ज्ञानपिपासु बन जा। यह जिन मंदिर, जिन मूर्ति बनाने का, स्थापना करने का, प्रभु दर्शन का आदि का उद्देश्य एक ही है कि प्रभु परमात्मा के दर्शन से हम जिन दर्शन कर लें। बाहर के भगवान तो पर भगवान हैं किन्तु निज-भगवान तो अपने भीतर ही बसे हुए हैं उसकी शोध में, उसके आनंद में स्वयं को रमाओ, उसके साथ ओतप्रोत हो जाओ और फिर कोई भेद नहीं रह जाए ध्यान, ध्याता और ध्येय में। ज्ञानिओ! आत्म स्वरूप की उपलब्धि में प्रभु और गुरु के वचन निमित्त बनते हैं। जिनालय वह आश्रम स्थान है, प्रतीक्षा स्थान है कि जब तक हमें मोक्ष, सिद्धालय, खरा खरा मोक्ष का मार्ग नहीं मिलता है तब

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