________________
अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
जब हम बुरा सोचोगे ही नहीं तो सुनना, कहना, और देखना भी समाप्त हो जायेगा। यही सच्चे संयम की स्थिति होगी । द्रोपदी का उपहासपूर्ण वचन और असंयममय व्यवहार ही महाभारत का कारण बना था यह हम सभी को भलीभांति ज्ञात है। ऐसा ही अप्रिय प्रसंग रामायण में बना था कि रावण की बहन चन्द्रनखा (सूपर्णखां ) विषयासक्ति के चलते अपने पुत्र की उम्र के लक्ष्मण पर मोहित हो गई और विवाह का प्रस्ताव तक कर बैठी। उसके आगे की दशा और समूचे परिणाम से हम सब वाकिफ ही हैं ।
42
वीतराग शासन में मानने वाले संयम के द्वारा षट्काय के जीवों की रक्षा करते हैं और जलकाय, पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीवों के साथ सजीवों की रक्षा करते हुए समूचे पर्यावरण की रक्षा में अपना योगदान सुनिश्चित करते हैं। जबकि असंयमी लालच के चलते जल, मिट्टी और वायु के आवरण को विविध तरीके से जहर घोलकर प्रदूषित कर रहा है, हिंसादि प्रवृत्तियों के द्वारा जैव विविधता का नाश कर रहा है। हम सभी संयम धर्म के दिन छोटे-छोटे संकल्प लेकर स्वयं की दशा को उन्नत बना सकते हैं तथा स्वच्छ समाज का निर्माण करते हुए समाज के विकास में अपना योगदान दे सकते हैं।
21
कामना और इन्द्रियों का दमन है : उत्तम तप धर्म
भादों महीने की चिलचिलाती धूप में भी मुनि त्यागीव्रती एवं श्रावकों की कठोर तपस्चर्या पर्युषण के 7वें दिवस साधना शिखर के परवान चढ़ती जा रही है। गुरुदेव आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने तपस्वी साधकों की अनुमोदना करते हुए कहा आप लोग आत्मा के गुणों को प्रकट करने हेतु पुरुषार्थ कर रहे हैं। यही वह सच्चा पथ है जो मोक्ष की मंजिल तक ले जाता है। भोग-उपभोग करते रहने से कामनाओं की तृप्ति कभी नहीं हो सकती। कामनाएं व इच्छाएं तो पागल कुत्ते व घड़ी के पेंडुलम की तरह चंचल हैं जो तृप्त करते जाने से और भड़कती हैं।
आचार्य भगवन् ने बादशाह और बकरी के लोकचर्चित कथानक के माध्यम से समझाया कि कितना ही चारा एवं विविध प्रकार के पदार्थ खिलाने के बाद भी बकरी तृप्त नहीं होती अपितु पुनः पुनः खाने के लिए लालायित रहती है। इसी प्रकार हमारी इच्छाऐं और कामनाऐं भी तृप्त करते जाने पर भी और अधिक बढ़ती ही जाती हैं। वहीं बादशाह के चेलेंज को स्वीकार कर एक श्रेष्ठी श्रावक संयम रूपी डंडा उसके सामने रखकर सभी पदार्थ सामने होते हुए भी उसका मुँह खाने से मोड़ देने में विरक्ति पैदा करने में सफल हो जाता है। भारतीय संस्कृति में कहा गया है - "चाह गई चिन्ता गई, मनुआ बेपरवाह। जाको कछु नहिं चाहिए वे शाह न के शाह । "