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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
तरीके से दिल खोलकर ऐसे बच्चों की मदद अवश्य करनी चाहिए । यदि दूसरों के होठों पर मुस्कराहट लाने के लिए अपने आपको तन मन धन से समर्पित कर देते हैं तो हम मानव जीवन को सही मायनों में सफल बना देते हैं। बाकी अपने दुख में रोने वाले खुद स्वार्थी और पशु-पक्षी भी होते हैं। भगवान महावीर स्वामी कहते हैं कि दुखी मत हो, दुख में भी सुख खोजना सीखो। साधनों की कमी, शरीर की खामी का रोना मत रोओ, हताश ना हो, अपने आप को चैतन्य आत्मा समझो, इसके ज्ञान स्वरूप को जाने और हर परिस्थिति में अपने आप को पुरुषार्थी बनाओ। इन्द्रियां तो शरीर रचना मात्र हैं इनकी कमी या अक्षमता को लिए आंसू बहाना व्यर्थ है ।
सफलता के परचम वे भी लहराते हैं जिनके एक हाथ नहीं, आँख नहीं, कान नहीं। हम धीर—- गंभीर साहसी बनकर घटनाओं का मूल्यांकन एवं पटाक्षेप करना सीखें न कि उससे घबड़ाकर अच्छे काम करना इसलिए बंद कर देने चाहिए क्योंकि लोग उसकी सराहना नहीं करते।
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जब पुण्य का उदय आयेगा तब उसको महत्व अवश्य मिलेगा। 25 साल पहले एक श्रेष्ठ उद्देश्य से मूकबधिरों की सेवा के लिए शुरु की गई यह संस्था इसका उदाहरण है। युवाओं को, जैन समाज को उदारता दिखाते हुए अलग अलग तरीके से इस तरह के सेवाकीय प्रयासों में जुड़ जाना चाहिए । अपना रोना छोड़कर हम समाज में खुशी बाँटे, सभी आत्माओं में परमात्म स्वरूप को देखें किसी से ईर्ष्या न करें, अहिंसा, शाकाहार, प्रेम, सहयोग व वसुधैव कुटुंबकम् की संस्कृति को बढ़ावा दे और सद्भावना रखें तो साधन, संसाधन अपने आप बड़े होते चले जायेंगे। जरुरतमंदों के प्रति संवेदनशीलता रखें, जरूरतमंद की समय रहते सहायता करें और उनके भले के लिए प्रार्थना करें क्योंकि हृदय से की गई प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती ।
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परोपकारी वीतरागी दिगम्बर संत सदाचार की संस्कृति के वाहक हैं
कोई दौलत पे नाज करते हैं, कोई शौहरत पे नाज करते हैं।
हमें मिला है प्रभु महावीर स्वामी का वीतरागी जिन धर्म । इसलिए हम अपनी किस्मत पे नाज करते हैं ।।
चर्याचक्रवर्ती आचार्य श्री सुनीलसागरजी महाराज ने आदर्श जीवन के निर्माण व सृजन में माता-पिता और गुरु की महिमा बताते हुए कहा कि व्यक्ति के जीवन में दो गुरु होते हैं- माता - पिता आरंभिक गुरु तथा जीवन को आत्मोन्नति के शिखर की ओर ले जाने वाले दीक्षा गुरु । कितने शर्म