Book Title: Anuvrat Sadachar Aur Shakahar
Author(s): Lokesh Jain
Publisher: Prachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार हे भव्य जीवो! यह मनुष्य जन्म व्यसन करने, भोगविलास में लिप्त रहने, शरीर के श्रंगार हेतु फेशन करने के लिए नहीं मिला अपितु इन पशुवत वृत्तियों को नियंत्रित संयममय मार्ग का अनुशरण करने के लिए मिला है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का चरित्र ले या नारायण श्री कृष्ण का चरित्र ले उनका व्यवहार पूर्णतः आदर्श एवं मर्यादानुचित था। भगवान नेमिनाथजी की विषयभोगों के प्रति हुई अनासक्ति का कारण जीवदया का भाव था जिसने उनके कदमों का रुख संसार सागर के चक्कर से दूर गिरनार के साधना पथ की ओर कर दिया। उनका प्राणी प्रेम व सभी जीवों के प्रति करुणा, संवेदनशीलता का भाव बेमिशाल है। महावीर प्रभु ने भी संयम धर्म की कठोरतम साधना करके आत्मकल्याण के मार्ग को निष्कंटक बना लिया और वही अहिंसक रास्ता सारी दुनियाँ को बताया जो व्यसन व कुविकार के घोर अंधेरे में डूबी हुई थी । 41 सही मायनों में संयम ही वह अहिंसक अस्त्र है जिससे कर्मों का नाश होता है, सहनशीलता विकसित होती है और जिससे आत्मा सोने के तरह तपकर शुद्ध सोना बनता है। आचार्य भगवन् कहते हैं कि जीवन में मन, वचन और काय तीनों का संयम अपरिहार्य है। शारीरिक शक्ति होने के बाबजूद यदि सहनशीलता आ सके तो वह संयम है। इस संयम से आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग तो प्रशस्त होता ही है किन्तु ढेर सारी सामाजिक-मानवीय एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं का कारगर निदान भी मिल जाता है। मन का संयम क्रोधादि कषायों पर ब्रेक लगाता है जो कई समस्याओं, परेशानियों का कारण हैं । महाभारत के युद्ध के पश्चात् पांडवों का श्रीकृष्ण के साथ हुए बहुचर्चित संवाद में संयम व सत्पथ की महिमा सामने आती है जब वे कृष्ण को साथ लेकर तीर्थ नदियों में स्नान से पाप शुद्धि की बात करते हैं। कृष्ण बहुत ही सुन्दर उत्तर देते हैं कि हे पांडु पुत्रो ! आत्मा परम पवित्र है, आत्मा एक सुन्दर नदी है जिसमें संयम रुपी जल बहता है, सत्य एवं शील इसके दो किनारे है, दया इसकी उर्मियां हैं यदि तुम ऐसी नदी में स्नान करते हो तभी सच्चा पश्चाताप कर आत्म शुद्धि करके पापमुक्त हो सकोगे। गुरुदेव ने कहा कि स्नानादि से तो शरीर शुद्धि ही हो सकती है किन्तु आत्मा की शुद्धि के लिए संयमरूपी रत्न धारण करते हुए कठोर साधना करनी होगी, प्रेम करुणा और दया जैसे मानवीय मूल्यों को हृदय में धारण करना होगा । गांधीजी संयममय जीवन जीने वाले व्यक्ति थे जिनके तीन बंदरबुरा मत कहो बुरा मत देखो और बुरा मत सुनो बहुत ही प्रसिद्ध थे समाज को सही रास्ते पर लाने के लिए। यदि हम उसमें प्रभु महावीर के बताए रास्ते के अनुरूप एक बंदर और जोड़ दें कि बुरा मत सोचो जो अपने हृदय पर हाथ रखे हुए हो तो ऊपर की तीनों व्यवस्थाएं पूरक बन जायेंगी क्योंकि

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134