________________
अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
10
जीवदया ही सच्चा धर्म
21
जीव दया संसार का सबसे महान धर्म है । इसका महत्व बताते हुए परम उपकारी गुरुदेव 108 आचार्य श्री सुनील सागर जी महाराज ने कहा कि जैन एवं भारतीय संस्कृति में ऐसे कई महान लोग हुए हैं जिन्होंने जीव दया की महिमा बताई है, स्थापित की है। प्रभु महावीर ने दुनियाँ को अहिंसा का संदेश दिया, भगवान पार्श्वनाथजी ने जलते हुए नाग-नागिन को बचाकर उनका जीवन सुधारा, हरिवंश के श्रीकृष्णजी के चचेरे भाई नेमिनाथजी ने पशुओं के क्रंदन को सुनकर और यह जानकर कि उनकी बरात में आए अमुक बारातियों के भोज में वे निरीह पशु काम आयेंगे, उनका हृदय द्रवित हो उठा, तोरण से ही रथ को मोड़ दिया और वैराग्य धारण कर गिरनार चले गए। धिक्कार है ऐसे आयोजनों पर जिसमें वे जीव हिंसा व पाप का निमित्त बन रहे हैं। योगीश्वर कृष्ण का पशु प्रेम प्रसंशनीय है वे हमेशा गाय माता के मध्य सुशोभित होते रहे हैं। लेकिन आज अज्ञानी व मूर्ख लोग मन्नतो आदि को पूरा करने के लिए पशुबलि देते हैं, कुछ बीच का रास्ता निकालकर दूसरों के माध्यम से यह कुकृत्य कराते हैं, यह मानकर कि इससे मुझे कोई पाप नहीं लगेगा और कुछ इस तरह के कृत्य की अनुमोदना मात्र से पाप के भागी बनते हैं । अरे! कितने क्रूर व मूर्ख लोग हैं जिन्हें अपनी जान तो प्यारी लगती है किन्तु दूसरों की जान को स्वयं के समान नहीं समझते। कुछ तो यहाँ तक तर्क-वितर्क करने लग जाते है कि घासफूंस व वनस्पति के उपयोग में भी तो पाप है। इसके लिए आचार्य श्री अमृतचंद्राचार्य जी आगम सम्मत विधान बताते हुए कहते हैं कि श्रावक जिन वनस्पतियों का सेवन करता है वे प्रायः पकी हुई होती है यदि वे उपयोग में न लाई जायं तो कुछ समय में ही नष्ट हो जायेंगी इसलिए इनके उपयोग में पाप नहीं ।
गुरुदेव कहते हैं कि इस तरह के कुतर्क के बाद भी पशुबलि, अबोल पशुओं की हत्या किंचित भी उचित नहीं । बताइए कि कौन सी ऐसी माँ होगी या देव होगा जो अपनी ही संतति की बलि लेकर प्रसन्न होगा? वस्तुतः यह तो स्वार्थी व पाखंडियो का बिछाया जाल है जिससे वे अपनी जिव्हा की निकृष्ट इच्छा पूर्ति हेतु लोगों को भ्रमित करने में लगे रहते हैं । बलि का सही अर्थ हैअपनी सर्वोत्तम व श्रेष्ठ वस्तु का समर्पण | पशुबलि तो मिथ्या है, धर्म नहीं क्योंकि धर्म तो आत्मा की सहजता और निर्मलता से उत्पन्न होता है ।