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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
उपसर्ग आदि आने पर, दुर्भिक्ष आदि आपदाओं के उत्पन्न होने पर, शरीर शिथिल हो जाने पर, शरीर की इन्द्रियों के साथ न देने पर तथा जरा-रोग आदि के सताने पर प्राणों का मोह त्याग कर संल्लेखना सहित पंडित मरण धारण कर लेना चाहिए ।
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आचार्यश्री शांतिसागरजी ने 84 वर्ष (जन्म सन 1972 तथा समाधि 18.9. 1955) के अपने जीवन में 41 वर्ष तक के गृहस्थ जीवन और तत्पश्चात् के साधु जीवन में उत्कृष्ट साधना की । आचार्य श्री शांति सागरजी के संयममय उदार जीवन का जैन धर्म के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने सन् 1913 में क्षुल्लक दीक्षा ली, परमपूज्य आचार्यश्री आदिसागर (अंकलीकर) जी से ऐलक दीक्षा ली तथा 1920 में आचार्य श्री देवेन्द्रकीर्तिजी से मुनि दीक्षा ली और 1924 में आचार्य पद प्राप्त किया। 19 अगस्त, 1955 को संल्लेखना धारण कर 36 दिवस उपवास की कठोर साधना करते हुए नश्वर शरीर का उत्सर्ग कर पंडित मरण को प्राप्त किया। कहते हैं कि जब 100 जन्मों का पुण्य संचित होता है तब मानव जन्म मिलता है, 1000 जन्मों का पुण्य हो तो जैन कुल मिलता है, लाखों जन्मों का पुण्य हो तो देश संयम मिलता है, असंख्य जन्मों का पुण्य हो तो सकल संयम मुनिधर्म अंगीकार करने का अवसर मिलता है तथा अनन्त जन्मों का पुण्य हो तो सहजता से समाधिमरण मिलता है।
जैन धर्म के विकास में 19वीं सदी में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने कठोर जिन साधना की भूली बिसरी परम्पराओं को पुनः जागृत किया और प्रतिष्ठा दिलाई। उन्होंने दक्षिण से उत्तर की ओर सघन वनों से विहार करते हुए सम्मेद शिखर तक की यात्रा कर जैन धर्म की प्रभावना की । रास्ते में कई उपसर्गों को शांति भाव से सहा । एक बार राजस्थान के राजाखेड़ा के कुछ उत्पाती लोगों ने आचार्यश्री को मारने, घायल करने की योजना बनाई। अंत समय में एक श्रावक को उसकी भनक लग गई। उसने मुनिश्री को कमरे के अंदर धकेलकर बाहर से कुंडी लगाकर उन 50 सशस्त्र उपद्रवियों का बड़े ही साहस से मुकाबला करना शुरु कर दिया। कुछ समय पश्चात् अन्य लोग व पुलिस के आने से उनका सरगना पकड़ा गया किन्तु गुरुदेव ने उसे माफ कर देने को कहा। उदारता एक तरह का परम सुख है। उनके जीवन में भरपूर उदारता थी ।
आचार्य शांति सागरजी का गृहस्थ जीवन भी सरल था उनके हृदय में अपार करुणा थी। उनके माता-पिता अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति के थे, सहज थे, अतिथि का योग्य सम्मान करते थे, देव दर्शन के बिना भोजन आदि ग्रहण नहीं करते थे। आपके मुनि बनने में वे कभी अवरोधक नहीं बने किन्तु एक भावना इस पुत्र के समक्ष रखी थी कि तुम मेरा योग्य समाधि मरण कराकर ही दीक्षा लेना । वास्तव में आपके पिताजी ने शरीर को शिथिल जान संयमपूर्वक धीमे धीमे आहार आदि का त्याग करके सुखद समाधिमरण को प्राप्त किया।