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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
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मानसिकता के कारण वे पतन के गहरे गर्त में गिरते, धंसते चले जाते हैं। ऐसा व्यक्ति इस लोक में तो अपना मान-सम्मान, प्रेम, वात्सल्य और विश्वास खोता ही है किन्तु परलोक की भी बेगति कर बैठता है।।
कई सारे युवा और बच्चे सुसंस्कारों के अभाव में अक्सर छल-कपट के गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं, कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। इन्हें माता-पिता और बड़े जनों की सीख भी नहीं सुहाती। इसका अंत सर्वदा बुरा होता है। वे कई खतरनाक दुयसनों के जाल में फंस जाते है, भोले भाले साथियों को भी षडयंत्र के शिकंजे में कस लेते हैं। आचार्य गुरुवर प्रचलित धर्म व लोकनीति को सामने रखकर स्वयं को सही रास्ते पर बनाए रखने की हिमायत करते हैं
"जो तोकू काँटा बुए, बाय बोय तू फूल ।
तोको फूल के फूल हैं बाकू हैं त्रिशूल।।"
आर्जव धर्म कहता है कि कपट आदि से सिद्धि प्राप्त करने वालों के, चोरों के कभी नगर नहीं बसते। यदि संयोगवश कुछ भौतिक साधन सम्पत्ति एकत्र भी हो जाय तो भी वह उसका शांति से भोग नहीं कर पाता। बेईमानी की मलाई की अपेक्षा ईमानदारी की सूखी रोटी ही अच्छी है। जीवन को सुखमय बनाने के लिए हमें मात्र इतना ही सोचना है कि हमारी बजह से कोई दुखी नहीं हो। शिक्षाविद् एवं जैनसंत गणेशवर्णी जी के गृहस्थ जीवन का उदाहरण देते हुए गुरुदेव ने कहा कि कोई हमें कोई भले ही ठग ले किन्तु हमसे कोई ठगा नहीं जाय, इसकी सावधानी जरूरी है। गरीब आदमी तो शायद पेट भरने के लिए पाप कर लेता है किन्तु अमीर लोग पेटी भरने के लिए पापचरण करने से नहीं चूकते।
गुरुदेव कहते हैं कि आगम का कथन है कि एक मुनिराज ने मौन रहते हुए उपवासी मुनि के रूप में अपनी झूठी प्रशंसा सुन ली परिणामस्वरूप मरकर वे राम के भाई भरत के हाथी तिलोकमंडन बने और वास्तविक उपवासी मुनि भरत बने। भारतीय लोक व्यवहार में एक बहुत ही प्रचलित कहावत है
"दगा किसी का सगा नहीं है, ना मानो तो कर देखो। जिस किसीने दगा किया है, जाकर उसके घर देखो।।"
इस नजीर के द्वारा संबोधित करते हुए कहा कि जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदने वाला स्वयं ही उसमें गिरता है पश्चाताप के बाबजूद लोकनिंदा से नहीं बच पाता।