Book Title: Anuvrat Sadachar Aur Shakahar
Author(s): Lokesh Jain
Publisher: Prachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan

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Page 46
________________ 36 अणुव्रत सदाचार और शाकाहार 18 लोभ पाप का बाप क्यों? : उत्तम शौच धर्म कहते हैं कि कफन के जेब नहीं होती, जन्म के समय पहनाए गए प्रथम वस्त्र झगुले में भी जेब नहीं थी फिर भी इस लोभी असंतोषी मानव ने अपनी सारी उमर सही-गलत तरीके से धन एकत्र करने की हाय-हाय में बिता दी। न तो अपनी आत्मा की शांति का विचार किया और न ही संबंधो का लिहाज। आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज ने कहा कि उत्तम शौचधर्म इसी तत्व के चिन्तन-मनन का विषय है और मन को आसक्ति से विरक्त करने वाला धर्म का एक लक्षण है जिसे आत्म कल्याण हेतु हर श्रावक को अपने जीवन में धारण करना चाहिए। यहाँ 60-70 युवा निर्जल उपवास करके दशधर्म की साधना कर रहे हैं वे अन्य के लिए प्रेरणारूप हैं। आचार्यश्री ने एक प्रचलित लोक दृष्टान्त के माध्यम से समझाया कि लोभ पाप का बाप क्यों है? इसकी परिणति कैसे होती हैं? इसे इस दृष्टान्त से समझ सकते हैं विद्या अध्ययन कर वापस लौटे पंडितजी ने जब अपनी पत्नी के इस प्रश्न का जबाब खोजने हेतु बनारस के लिए पुनः प्रस्थान किया। रास्ते में अनजाने में एक वेश्या के चबूतरे पर बैठ जाते हैं। ज्ञात होने पर वहाँ से निकल जाने का जतन करते हैं, वेश्या के अनुनय विनय करने पर धर्म भ्रष्ट होने की दुहाई देते हैं लेकिन अंत में उस वेश्या के 100 सोने की मुहरों के लालच में वहीं पर सोने के लिए राजी हो जाते हैं, उसके आगे 500 मुहरों के लालच मिलने पर सुबह उसके घर के अंदर भोजन के लिए भी राजी हो जाते हैं और अंत में अपने ईमान से नीचे गिरते हुए 1000 सुवर्ण मुद्राओं के लालच में जैसे ही उसके हाथ से एक निवाला खाने के लिए मुँह खोलते हैं तब उस वेश्या का एक झन्नाटेदार तमाचा उनके गाल पर पड़ता है तब उन्हें अपनी पतोन्मुख लज्जापूर्ण अवस्था का भान होता है। आचार्य भगवन् कहते हैं कि तन की शुचिता नहिं किन्तु मन और आत्मा के भावों की शुचिता जरूरी है जो कषायादिक विकारों के कारण दूषित होती रहती है। आज की प्रवचन सभा में गुजराती फिल्म जगत के जानेमाने अभिनेता नरेश कनोडिया, उनके अभिनेता पुत्र तथा ईडर क्षेत्र के विधायक श्री हितुभाई कनोड़िया, पूर्व मेयर श्री गौतमभाई शाह के साथ आचार्यश्री के दर्शन एवं आशीर्वाद हेतु उपस्थित हुए। आचार्यश्री की साधना और तपस्चर्या से प्रभावित होकर नरेशभाई कनोड़िया ने कहा कि हम 75 वर्ष की आयु में प्रथम बार आपके दर्शन करके अपने जीवन में कृतार्थता व धन्यता का अनुभव

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