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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
कर्नाटक के सम्राट मितदेव जिनका पर्वर्तित नाम विष्णुवर्धन था के बड़े भाई वल्लालदेव की शादी तीन सगी बहनों से हो गई। संयोग से छोटी को पहले गर्भ रह गया। मेरा बेटा ही भावी राजा और राज्य का उत्तराधिकारी बने इस मोह, लालच के चलते उन बहनों में ईर्ष्या ठन गई। जिसमें न सिर्फ इस गर्भ को गिराने हेतु तमाम नीच क्रियाएं की गई अपितु संयोग ऐसे बने कि उनके पति वल्लाल देव को भी मृत्यु का ग्रास बनना पड़ा।
ये जलन तो इतनी हिंसक व खराब है कि सामने वाले के साथ साथ स्वंय का भी नाश कर देती है, व्यक्ति को इतना अंधा बना देती है कि वह देखकर भी कुछ भी देख नहीं पाता। चूहे-बिल्ली के इस खेल में यूं ही संसार बढ़ता जा रहा है। भगवान महावीर स्वामी जी ने श्रावक व ग्रहस्थ के अणुव्रत धर्म को श्रेष्ठ धर्म कहा है क्योंकि वह नौ प्रकार की हिंसा का एक देश त्याग करता है। जीवन यापन हेतु स्थावर जीवों की हिंसा होती है लेकिन वह इसमें भी संयम व मर्यादा का पालन करते हुए पूर्ण विवेक रखता है तथा त्रसकायिक जीवों की हिंसा से सदैव दूर रहता है। संमरंभ, समारंभ आरंभ, मन वचन काय और क्रोध मान माया लोभ के परस्पर गुणाकार से वह 108 प्रकार की हिंसा का भागीदार बनता है।
जो हिंसादिक पाप हो जाते हैं उनके प्रायश्चित स्वरूप णमोकार मंत्र का जाप करना उसके लिए अनिवार्य बताया गया है। कछ लोग कहते हैं कि अहिंसा से देश का पतन हुआ है, यह धारणा एकदम गलत है। विरोधी हिंसा के प्रावधान से देश का रक्षण होता है। कुमारपाल देसाई, सम्राट खारवेल, चन्द्रगुप्त मौर्य आदि प्रभावी शासक हुए हैं जिन्होंने देश हित के लिए आवश्यकता पड़ने पर शस्त्र भी उठाये। जैन दर्शन में जीविकोपार्जन व राष्ट्र की सुरक्षा हेतु व्यावहारिक दृष्टि से नैतिकता को बनाए रखते हुए विवेकपूर्ण विरोधी हिंसा का प्रावधान किया गया है। इससे उसे उद्योगी और आरंभी हिंसा का दोष तो लगता है किन्तु सम्यकदृष्टि श्रावक संकल्पी हिंसा नहीं करता। इसका आशय कदापि यह नहीं है कि वह यह कहे कि मैं स्थावर की हिंसा करूँगा। अपितु ऐसी भावना सदैव भाता है कि जरूरतों की संतुष्टि में कम से कम स्थावर की हिंसा हो तथा त्रस जीव का घात न हो इसमें हर समय विवेक व सावधानी बनी रहे।
___ आचार्य भगवन् कहते हैं ये पाप और कषाय सबसे बड़े भयंकर रोग हैं जिनके उपचार हेतु माँ जिनवाणी की गोद और आचार्यश्री की कल्याणमयी वाणी सतत मिल सके ऐसा होस्पीटल चाहिए। जो लोग जीव को जीव नहीं समझते, वे लोक व्यवहार के विरुद्ध काम करके एवं भोगों में रत रहते हए सुखी नहीं हो सकते। आज इनकी भोगादिक विषयों की पूर्ति हेतु आजीविका की नैतिकता का विचार बहुधा लोगों को नहीं आता। लोग प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से हिंसादिक साधनों से आजीविकोपार्जन से नहीं हिचकिचाते तथा कुतर्क करते हुए बड़ी ही