Book Title: Anuvrat Sadachar Aur Shakahar
Author(s): Lokesh Jain
Publisher: Prachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan

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Page 23
________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार सुनीलसागरजी महाराज ने आज प्रातःकालीन प्रवचन सभा में जैन दर्शन में वर्णित सत्य, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रहाणुव्रत जो कतिपय भारतीय संस्कृति साहित्य के हर प्रमुख धर्म व नीति ग्रंथों में उल्लखित हैं, के पालन की आवश्यकता को लेकर कहा कि यदि हर देशवासी श्रद्धा व ईमानदारी से इनका पालन करता है तो देश अनैतिकता, आतंकवाद, हिंसा, वैमनस्यता, विषमता, सामाजिक–आर्थिक असमानता आदि कई विकराल दूषणों से मुक्त हो सकता है। फिर हमारे देश में पुलिस व्यवस्था व न्याय व्यवस्था के लिए स्थापित तंत्र की जरूरतें बहुत घट जायेंगी, समाज अपराधमुक्त बन सकेगा तथा सर्वत्र सुख व शांति का वातावरण होगा । 13 अणुव्रती की जीवनशैली विषय का सरलीकरण व विस्तार करते हुए पूज्य गुरुवर ने पूर्वाचार्यश्री अमृतचंद्रजी आचार्य के एक प्रमुख परम उपकारी ग्रंथ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय में वर्णित गाथाओं के संदर्भ को लेकर समझाते हुए कहा कि हम ऐसा कौनसा पुरुषार्थ करें जो सही हो और जो हमें लक्ष्य सिद्धि की ओर ले जाए? यह इस ग्रंथ का सार है। इसमें जो पुरुषार्थ करने योग्य बताया है वह 8 मूलगुणों को धारण करना तथा मधु, मांस, शराब, वड़, पीपल, ऊमर, कठूमर एवं पाकरफल आदि पंच उदम्बर फलों के त्याग को जीवन में शुद्धाचरण के रूप में शामिल करता है। पंच उदम्बर फल वृक्ष के मुख्यभाग से चिपके होते हैं जिसमें अनन्त जीवराशि होती है, स्वाद में ये फल कदाचित् मीठे भी लगते हैं फिर भी इसके सेवन में हिंसा का दोष होने से त्यागने योग्य हैं। ये उन फलों की अपेक्षा सघन जीवराशि युक्त होते हैं जो फल वृक्ष की टहनी पर अलग से लटके होते हैं। कुछ लोग इन पंचउदम्बर फलों को धार्मिक विधि-विधान में उपयोग में लाते हैं किन्तु इसे भी उचित नहीं माना जा सकता क्योंकि किसी भी देवता या पवित्र आत्मा को जीवराशि भेंट स्वरूप अर्पित करने योग्य नहीं हो सकती। औषधि बनाने हेतु लोग इन्हें सुखाकर उपयोग में लाने की वकालत करते हैं। पर जरा सोचो कि जिसमें अनन्त जीवराशि सूखकर मर चुकी हो वह वस्तु कैसे उपयोग योग्य हो सकती है? कई बार इसमें विषैले जीव भी सूखकर मर जाते हैं तब इनके उपयोग से निरोगी होने की बजाए बीमारी और अधिक गंभीर हो जाती है। आचार्यश्री कहते हैं कि अपना खान पान इतना संयमित, विवेकपूर्ण, शुद्ध व मर्यादित रखो कि बीमार होने की नौबत ही न आए। कई बार बाहर जाकर हम अपने शरीर की मर्यादा को भूलकर स्वाद में अथवा अन्य कारणों के चलते जरूरत से ज्यादा खा पी लेते हैं जिसमें अपना तो नुकसान करते ही हैं साथ ही दूसरों के लिए उन वस्तुओं का अभाव भी खड़ा कर देते हैं। यह किसी भी दृष्टि से एक सभ्य व्यक्ति या अणुव्रती के लिए शोभनीय नहीं है। कन्दमूल के त्यागी किन्तु जिव्हा के लोलुपी, गुलाम आसक्तिवश तर्क देते हैं जब जमीन में उगने वाली हल्दी और अदरक को सुखाकर उपयोग करने में कोई दोष नहीं है तो आलू के चिप्स सुखाकर क्यों नहीं खाए जा

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