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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
वहाँ उपदेश देकर अनुग्रहीत करते रहते हैं ताकि वे लोग भी व्यसन व हिंसा आदि का त्याग करके स्वयं को व परिवार को विनाश से बचा सकें, जीवन को संवार सके और अपनी आत्मा की उन्नति कर सकें। आत्मकल्याणी गुरु व्यावहारिक व लौकिक जीवन में रोशनी का अलख जगाते हैं।
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साबरकांठा के सांसद दीप सिंहजी राठोड से आचार्यश्री ने पूँछा कि आप राजनीति में रहते हुए धर्मध्यान कब कर पाते है? तब सांसद महोदय ने गुरु को महिमा मंडित करने वाला सुन्दर उत्तर दिया कि जब कभी महीने छः महीने में आप जैसे कठोर तपस्वी के दर्शन हो जाते हैं तब हम स्वयं का चिंतन कर लेते हैं। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन स्वयं को पहले शिक्षक मानते थे फिर राष्ट्रपति, वे संस्कारमूर्ति व शाकाहारी थे एवं समाज के लिए आदर्श भी ।
शिक्षक संस्कारों का पुंज होता है जो अपने आदर्श व्यवहार, निष्ठा व कर्मठता से समाज के लिए व देश के लिए सर्वशक्तिमान मानव शक्ति का निर्माण करता है। चाणक्य जैसे गुरुओं के उदाहरण हमारी आँखो से छिपे नहीं है। गुरु न सिर्फ सपने दिखाता है अपितु उन्हें पूरा कराने के लिए अपनी समस्त ताकत शिष्य को बनाने में झोंक देता है और उसकी सफलता में ही अतीव आनंद का अनुभव करता है ।
आज की सभा में पधारे हुए संतरामपुर के विधायक डॉ. कुबेर भाई दिंदोर तथा प्रातःकालीन प्रवचन सभा में नियमित उपस्थिति देने वाले कड़ी के विधायक श्री के.पी. सोलंकी महोदय की भूमिका को लक्ष्य करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि मात्र स्कूल में पढ़ाने वाले को ही शिक्षक नहीं माना जाता अपितु लोगों को नेतृत्व प्रदान करने वाला भी शिक्षक होता है जो समाज के विकास हेतु नई दिशा देता है। ऐसे में शिक्षक का आचरण आदर्श एवं अत्यन्त सावधानी भरा होना चाहिए क्योंकि दुनियाँ यह नहीं देखती कि उसने क्या कहा ? अपितु उसने क्या किया? यह देखना एवं तदनुरूप अनुकरण करना पसंद करती है।
कुछ गैर जिम्मेदाराना शिक्षकों की हरकतों से समग्र शिक्षक समुदाय बदनाम हो जाता है। लापरवाही, प्रमाद व लालचवश शिक्षा को व्यापार बनाने वाले कुछ शिक्षक इस महिमामंडित शब्द को कलंकित कर देते हैं। शिक्षक दिवस वास्तव में शिक्षकों को सम्मान देने का दिवस है, उनकी अनुकम्पा के प्रति आभार प्रकट करने का दिवस है। हर स्कूल में से एक शिक्षक अवश्य बनना चाहिए क्योंकि हर शिक्षक डॉक्टर, अधिकारी आदि बना सकता है किन्तु कोई अधिकारी या डॉक्टर शिक्षक पैदा नहीं कर सकता जो अहिंसक समाज रचना में अपना जीवन होम कर सके। हमारे पुराने गुरुकुलों में शिक्षकों का ज्ञान, अध्ययन-अध्यापन की वृत्ति तथा तदनुरूप उत्कृष्ट आचरण शिक्षक की एक विशिष्ट पहचान थी जिससे शिक्षक पद की गरिमा कायम थी। आज हमें इसी ओर लौटना है और सही मायनों में व्यक्ति और समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होना है ।