Book Title: Anuvrat Sadachar Aur Shakahar
Author(s): Lokesh Jain
Publisher: Prachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan

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Page 17
________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार सफलता की ऊँचाई पर हो तो धैर्य रखना, वरना पक्षियों को भी पता है कि, आकाश में ठहरने की जगह नहीं होती । 7 आज हम जिस मुकाम पर हैं, कल वहाँ कोई और आयेगा तब फिर ये तुम्हारा गुमान करना व्यर्थ है जिसके मद में हम लोभ, लालच मायाचारी करने से भी गुरेज नहीं करते । गुरूदेव ने कहा कि हिंसादिक प्रवृत्तियों का त्याग न करने से हिंसा होती है। वस्तुतः किसी त्याग योग्य वस्तु के सेवन में हिंसा नहीं है अपितु उसमें आसक्ति रखने, ममत्व रखने के परिणाम स्वरूप बिगड़ने वाले भावों के द्वारा हिंसा होती है इसलिए ऐसी वस्तु के आयतन में हिंसा मानी जाती है और उस वस्तु का त्याग करना ही अच्छा होता है। आसक्ति पापबंध का कारण है। उदाहरण के लिए कपड़ों में हिंसा नहीं मानी जा सकती किन्तु उनके प्रति ममत्व रखने से तत्संबंधी पाप तो लगता ही है तथा उसकी प्राप्ति में अवरोध आने से भाव और फिर भव दोनों बिगड़ते हैं इसलिए कपड़ों के संग्रह, अतिरेक परिग्रह को हिंसा का आयतन माना गया है और इसे पापरूप हिंसा कहा गया है। जहाँ तक संभव हो हमें प्रमाद आदि छोड़कर, विवेक को धारण कर इससे बचने का यत्न और योग्य पुरूषार्थ करना चाहिए । पूर्वाचार्यों का कथन है कि यदि अनजाने में इस तरह का हिंसादि पाप हो जाय, तो इतना पाप नहीं लगता जितना कि ज्ञान व बोध होने के बाद भी जानबूझकर, प्रमादवश आगम की अवमानना कर की गई हिंसादिक प्रवृत्तियों से लगता है क्योंकि इससे परिणाम विशुद्धि नहीं हो पाती और आश्रव बंध लगा रहता है। विशुद्धि के लिए यथाख्यात चारित्र आवश्यक है अर्थात् आन्तरिक एवं बाह्य दोनों ही रूपों में इन अहिंसादिक प्रवृत्तियों का प्रकटीकरण होना चाहिए । संघस्थ मुनि श्री श्रुतांशसागरजी महाराज ने प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान के पूर्व भव की आहारदान घटना का वर्णन करते हुए बताया कि किस प्रकार राजा बज्रजंघ उनकी पत्नी द्वारा भक्ति-भाव पूर्वक आहार दान करने से एवं वहाँ उपस्थित मंत्रीगण तथा 4 जंगली प्राणियों द्वारा उसकी अनुमोदना करने से उनका भवच्छेद हुआ। जबकि खाना पकाने वाली नौकरानी के इस प्रकार के भावों के अभाव में उसे कोई फल प्राप्त नहीं हुआ । अर्थात् जो कार्य भाव सहित किए जाते हैं, कराए जाते हैं, अनुमोदित किए जाते हैं उनका फल अवश्य ही जीव को प्राप्त होता है। उन्होंने कहा कि आहार में वस्तुऐं अधिक बनाने की बजाए मर्यादित वस्तुओं के साथ सादगीपूर्ण भोजन शुद्धता के साथ तैयार किया जाय तथा क्रिया शुद्धि का बराबर ध्यान रखा जाए तो अतिशय पुण्य का बंध होता है । इस भावपूर्ण आहार दान से भव्य जीवों के भव सुधर जाते हैं।

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