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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
शराब आदि व्यसन सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति में बाधक
सदाचारी स्वयं भी सुखी होता है तथा अपने चरित्र से दूसरों को भी आनंदित करता है। चतुर्थपट्टाचार्य परमप्रभावक दिगम्बर संत चर्याचक्रवर्ती आचार्य श्री सुनीलसागरजी महाराज ने आज प्रातःकालीन प्रवचन सभा में सदाचार की राह में बाधक व्यसन के मुद्दे को केन्द्र में रखकर अपना प्रवचन शुरु किया कि किस प्रकार ये व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के हित में बाधक बनता है। पाश्चात्य संस्कृति से अभिभूत युवाधन आज व्यसन के दलदल में फंसकर हिंसादिक पाप कर रहा है तथा स्वयं का सर्वनाश करके परिवार को भी तिल तिल कर मरने पर मजबूर कर रहा है। इससे उसका स्वयं का तो विनाश होता ही है वह अपने आसपास के अन्य कई लोगों को भी बिगाड़ता है। इतिहास गवाह है कि शराब की लत के कारण क्षत्रिय शूरवीर समाज भी मुगलों और अरबों से पराजित होता रहा।
एक श्रावक के लिए सदाचारी जीवन जीने के लिए 8 मूलगुणों का पालन अनिवार्य बताया है। विभिन्न जैनाचार्यों ने इन मूलगुणों में अलग-अलग घटकों को सम्मिलित किया है। सभी मदिरा, मांस, मधु, असंख्यात सूक्ष्म जीवराशि वाले पंचउदम्बर फल के त्याग का आग्रह करते हैं। पंडित आशाधरजी तो इसमें व्यसनमुक्ति के साथ साथ रात्रि भोजन व अनछने जल का त्याग और जीवरक्षा का भी आग्रह कठोरता से रखते हैं, वहीं वसुनंदी आचार्यजी कहते हैं
"जुआ खेलना, मांस मद, वेश्यागमन, शिकार।
चोरी, पर रमणी रमण सातों व्यसन निवार"
वे इन सप्त व्यसनों से दूर रहने की हिमायत करते हैं। मद में डूबा हुआ एक समाज पशुओं की निर्मम तरीके से हत्या(हलाल) का खेल खेलते हुए धर्म का हवाला देता है, कैसी दयनीय मूढता की स्थिति है जिन्होंने जीव के प्रति करुणा ताक में उठाकर रख दी है। अरे! योगेश्वर श्रीकृष्ण से खेल एवं खेल की भावना सीखो। ऐसे मनोरंजक खेलों को प्राधान्य मिलना चाहिए जिससे प्रीत बढ़ती हो, द्वेष घटता हो और लोगों में भाईचारा पनपता हो। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने प्रेम व वात्सल्य से परिपूर्ण खेल खेले किन्तु जुआ आदि से दूर रहे उन्होंने दुर्योधन व युधिष्ठर को भी जुआ खेलने से मना किया। कृ ष्ण का खेल था पशुप्रेम, गेंद का खेल जिसके द्वारा खेल खेल में उन्होंने कालिया नाग जैसे दुष्ट का मर्दन किया जो यमुना के जल मे विष मिलाकर