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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
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जीवन में संयम आवश्यक
पानी यदि अपनी मर्यादा तोड़ता है, तो विनाश होता है। और यदि वाणी की मर्यादा टूटती है, तो सर्वनाश होता है ।।
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इस युक्ति के संदर्भ को वर्तमान मानव समुदाय के कल्याण हेतु स्पष्टता करते हुए चातुर्मास के दरम्यान गांधीनगर - गुजरात में विराजित परम पूज्य चर्याचक्रवर्ती आचार्यश्री सुनीलसागरजी ने कहा कि पानी यदि मर्यादा में है तो वह एक जीवनदायिनी शक्ति बनता है किन्तु यदि वह अपनी मर्यादा को लांघ जाता है तो विनाश का तांडव खड़ा कर देता है। केरल जैसी आपदाएं इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। हालांकि इसके लिए पर्यावरण का विनाश, प्लास्टिक का बढ़ता हुआ उपयोग, जल प्रदूषण तथा जैव विविधता का विनाश आदि मानवसृजित कारण उत्तरदायी हैं। आग के बारे में भी यही विधान किया जा सकता है । चूल्हे की मर्यादा में रहकर आग भोजन पकाकर भूख मिटाने का काम करती है किन्तु जब यह बेकाबू होकर फैलती है तो यही आग सर्वनाश व तबाही का सबब बनती है।
वाणी की निरंकुशता एवं अविवेकपूर्ण उपयोग को लेकर द्रोपदी के कटु व्यंग-मिश्रित वचन एवं महाभारत के रूप में उसके परिणामों से हम सभी भली भांति परिचित हैं । निरंकुश वाणी प्रयोग से खड़े होते साम्प्रदायिक झगड़े, परिवार में पनपते व गहराते मन मुटाव, कार्यस्थलीय संघर्ष आदि रोजमर्रा की जिंदगी के उदाहरण हैं फिर भी हम सावधान नहीं होते यही तो आश्चर्य है । नीतिकारों ने कहा है कि अति सर्वत्र वर्जित होती है। इस समस्या के समाधान की दिशा में जैन धर्म, जैन दर्शन हिंसा, झूठ, चोरी कुशील, परिग्रह आदि पांच पापों के दूर रहने की देशना करता है जो व्यवहार में झगड़े की जड़ हैं, विवाद का कारण हैं एवं विपत्तियों के आमंत्रक निमित्त हैं तथा निश्चयनय में जीवन की कुगति का कारण भी ।
महामुनिराज सकल देश अर्थात् सम्पूर्ण रूप से इन पांच पापों का त्याग करते हैं जबकि श्रावक अपनी आत्म विशुद्धि को बढ़ाते हुए एक देश इन हिंसादिक पांच पापों का त्याग करके जीवन को मर्यादा में बांधता है और संयममय जीवन जीने का पुरुषार्थ करता है । सांसारिक जीवन में कई बार व्यावहारिक झूठ भी बोलना पड़ जाता है अपनी आजीविका आदि को चलाने के लिए। लेकिन इसे ग्राह्य कहा जा सकता है यदि यह संयममय मर्यादा में बंधा हो। ब्रह्मचर्य व्रत अर्थात् शील सहित जीवन यापन समाज में सुसंस्कार एवं आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर व्यभिचारमुक्त, साफ-सुथरे समाज की